किस प्रकार मानव अधिकार एक समकालीन चिंता का विषय है समझाइए
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Explanation:
मानव अधिकार विश्व भर में मान्य व्यक्तियों के वे अधिकार हैं जो उनके पूर्ण शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास के लिए अत्यावश्यक हैं इन अधिकारों का उदभव मानव की अंतर्निहित गरिमा से हुआ है। विश्व निकाय ने 1948 में मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा को अंगीकार और उदघोषित किया। इस उदघोषणा में अनुसार प्रत्येक व्यक्ति और समाज का प्रत्येक अंग इन अधिकारों और स्वतंत्रताओं के प्रति सम्मान जागृत करेगा और अधिकारों की विश्वव्यापी एवं प्रभावी मान्यता और उनके पालन को सुनिश्चित करने का प्रयास करेगा।
मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा के पश्चात मानव अधिकारों की अभिवृद्धि और पालन के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ ने अंतर्राष्ट्रीय सिविल और राजनैतिक प्रसंविदा, अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक, सामाजिक और सास्कृतिक अधिकार प्रसंविदा 1966 और अंतर्राष्ट्रीय सिविल और राजनैतिक अधिकार पर प्रसंविदा के वैकल्पिक प्रोटोकॉल को अंगीकार किया।
मानव अधिकारों के अतिक्रमण के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उपचारों के भी प्रावधान हैं। मानव अधिकार आयोग, मानव अधिकारों के मानकों को लागू करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहा है। अतः शान्ति बनाए रखने, अन्तर्राष्ट्रीय स्थिरता को बढ़ाने, आर्थिक व सामाजिक विकास में सहायता करने के लिए इन अधिकारों को महत्वपूर्ण बनाने पर दृढ़तापूर्वक कार्य करना आवश्यक है।
मानव अधिकार के विभिन्न अर्थ
मानव अधिकारों का शब्दकोशीय अर्थ है, दृढ़तापूर्वक रखे गये दावे, अथवा वे जो होने चाहिए, अथवा कभी-कभी उनको भी कहा जाता है जिनकी विधिक रूप से मान्यता है और उन्हें संरक्षित किया गया है जिनका प्रयोजन प्रत्येक व्यक्ति के लिए व्यक्तित्व आध्यात्मिक, नैतिक और अन्य स्वतंत्रता का अधिक से अधिक पूर्ण और स्वंतंत्र विकास सुनिश्चित करने को है। मानव अधिकार का संरक्षण अधिनियम, 1993 मानव अधिकार को निम्न प्रकार से परिभाषित करता है-
मानव अधिकार से प्राण, स्वतंत्रता, समानता और व्यक्ति की गरिमा से संबंधित ऐसे अधिकार अभिप्रेत हैं जो संविधान द्वारा प्रत्याभूत किये गए हों या अंतरराष्ट्रीय प्रसंविदाओं में सन्निविष्ट और भारत में न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय हैं
संक्षेप में, मानव अधिकार विश्व भर में मान्य व्यक्तियों के वे अधिकार हैं जो उनके पूर्ण शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास के लिए बहुत बुनियादी माने गये हैं। ये अधिकार मानव शरीर में अंतर्निहित गरिमा और महत्व से निकाले गये हैं।
इन अधिकारों की मान्यता मानव मूल्यों को चरितार्थ करने के लिए मनुष्य के लंबे संघर्ष के बाद हुई है। मानव अधिकार का विचार अनेक विधिक प्रणालियों में पाया जा सकता है। प्राचीन भारतीय विधिक प्रणाली, जो विश्व की सबसे प्राचीन विधिक प्रणाली है, इन अधिकारों की संकल्पना नहीं थी, केवल कर्तव्यों को ही अधिकथित किया गया था। यहाँ के विधि शास्त्रियों की मान्यता थी कि यदि सभी व्यक्ति अपने कर्तव्यों का पालन करने तो सभी के अधिकार संरक्षित रहेंगे। प्राचीन भारत के धर्मसूत्रों एवं धर्म्शास्स्त्रों की विशाल संख्या में लोगों के कर्तव्यों का ही उल्लेख है। धर्म एक ऐसा शब्द है जिसका अर्थ बहुत विस्तृत है किन्तु उसका एक अर्थ कर्तव्य भी है। इस प्रकार सारे धर्मशास्त्र धर्मसंहिताएँ हैं, अर्थात कर्तव्य संहिताएँ हैं। इसलिए मनुस्मृति को मनु की संहिता भी कहा गया है। मनुस्मृति के अध्यायों के शीर्षकों को देखने से ही ज्ञात हो जाएगा कि वे राजा को सम्मिलित करते हए समाज के विभिन वर्गों एवं व्यक्तियों के कर्तव्यों का उल्लेख करते हैं।
इस प्रकार प्राचीन भारतीय विधिनिर्माताओं ने केवल कर्तव्यों की ही बात सोची और अधिकार के बारे में उन्होंने कदाचित ही कुछ कहा। उन्होंने कर्तव्य पालन को स्वयं के विकास के लिए अनिवार्य बनाकर, कर्तव्य की कठोरता को समाप्त कर दिया।