किसी व्यक्ति को सुधारने के लिए दंड देना आवश्यक नहीं है.' हार की जीत कहानी के आधार पर इस विषय के पक्ष
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जब भी व्यक्ति के चारित्रिक या मानसिक सुधार की बात आती है तो बिना किसी ठोस आधार के हम ऐसा मानकर चलते हैं कि सुधार करने के उद्देश्य से दंड देना अनिवार्य और प्रभावकारी है. जब तक व्यक्ति को उसकी सजा के अनुरूप दंड नहीं दिया जाएगा वह कभी भी अपनी गलती को पहचान नहीं पाएगा.
दंड की यह अवधारणा या प्रक्रिया बचपन से ही व्यवहारिक रूप ग्रहण कर लेती है. जब बच्चा कोई गलती करता है तो माता-पिता उसे समझाने की बजाए उस पर हाथ उठा देते हैं. कभी-कभार अभिभावक बच्चे को उसकी गलती का अहसास दिलवाने के लिए अन्य लोगों के सामने ही उसे डांटने या मारने लगते हैं. कोई भी माता-पिता अपने बच्चे का बुरा नहीं चाहते इसीलिए इस कदम के पीछे उनका यही उद्देश्य रहता है कि बच्चे को यह समझ आए कि उसने क्या गलत किया है ताकि आगामी जीवन में कभी भी वो ऐसी हरकत ना करे.
अध्यापकों की मानसिकता भी दंड के इसी विधान पर केन्द्रित रहती है. अगर छात्र स्कूल में कोई गलती करें या दिया गया काम समय पर पूरा ना करें तो वह उन्हें शारीरिक दंड देना ही बेहतर समझते हैं. क्लास के अन्य बच्चों के सामने उस पर हाथ उठा कर उन्हें लगता है बच्चे को सही राह पर ले जाने का उनका उद्देश्य पूरा हो गया.
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