Hindi, asked by samgm305f, 8 months ago

) कृष्ण के प्रतत प्रेम होते हुए भी उनकी बााँसरु से गोपी का अलगाि क्यों है?​

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Answered by aditi136966
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हमारे पुराणों में भगवान की लीलाओं का जो आलंकारिक वर्णन है एवं हमारे भजनीक लोग उनके संबंध में आम तौर पर लोगों को जैसे भजन सुनाते हैं, उनमें प्रत्यक्ष कामवासना की गंध दिख पड़ती है, इसीलिए कुछ लोगों को इस प्रकार के आक्षेप करने का अवसर मिलता है।

क्या वास्तव में भगवान की लीलाओं में कामवासना थी? नहीं, कदापि नहीं! शास्त्रों में यह बात कही गई है कि जो गृहस्थ अपनी विवाहित पत्नी के साथ धर्म पूर्वक संबंध करता है, वह ब्रह्मचर्य का ही पालन करता है।

श्री कृष्ण अनेक पत्नियों के स्वामी होते हुए भी ब्रह्मचारी थे, यह बात तो उपर्युक्त शास्त्रीय व्यवस्था के अनुसार मानने में आ सकती है, परन्तु गोपियों के साथ जो उनका संबंध था, उसमें यह बात लागू नहीं हो सकती, क्योंकि उनका विवाह दूसरे पुरुषों के साथ हो चुका था।

यह ठीक है, परन्तु श्री कृष्ण और गोपियों का संबंध तो पवित्र था। उदहरण के लिए श्री राधिकाजी को ही लीजिए। अन्य सब गोपियों की अपेक्षा उनका श्री कृष्ण पर सबसे अधिक प्रेम था।

श्री कृष्ण और गोपियों के प्रेम में यह बात नहीं थी, वह तो महान था, इन्द्रियातीत था और आत्यात्मिक था। पाश्चात दार्शनिक प्लैटो के मत में प्रेम वही है, जिसमें काम का लेश भी न हो। गोपियों के प्रेम का भी यह एक तटस्थ रूप ही है।

श्री कृष्ण मुरलीधर के नाम से प्रसिद्ध हैं। यह सबके अनुभव की बात है कि संगीत कला कोविद मनुष्य अपने उत्तम संगीत से श्रोताओं को, चाहे वे स्त्री हों या पुरुष, आनन्द से मुग्ध कर सकता है। फिर श्री कृष्ण तो साक्षात्‌ नाद ब्रह्म के स्वरूप ही थे।

उनके दिव्य संगीत उपनिषद् सार श्रीमद्भगवद् गीता ने स्त्रियों और शूद्रों तक के लिए जो उसके अधिकारी नहीं समझे जाते थे, मोक्ष का द्वार खोल दिया है। फिर यदि व्रज की पवित्र हृदया स्त्रियां उन्हें अपना उद्धारक समझकर उनके प्रति अनन्य प्रेम करने लगीं तो इसमें आश्चर्य की कौन सी बात है?

गोपियों का श्री कृष्ण के प्रति जो प्रेम था, उसमें भोग की वासना का लेश भी नहीं था। उनकी भोग-वासना को तृप्त करने के लिए तो उनके विवाहित पति थे ही, परन्तु वे पति उनकी आत्मा को शाश्वत आनन्द की जो अभिलाषा थी, उसे पूरी करने में असमर्थ थे। यह कार्य भगवान्‌ श्री कृष्ण ने ही किया।

इन्द्रिय विषयों में विमुग्ध साधारण मनुष्य इस आध्यात्मिक संबंध को हृदयअंगम नहीं कर सकते। इन्द्रियों के परे के विषय में उनका प्रवेश ही नहीं है। श्री कृष्ण ने अपने साहचर्य एवं संसर्ग से गोपियों को इन्द्रियों के परे ले जाकर उस शाश्वत्‌ आनन्द की झलक दिखलाई।

जब श्री रामकृष्ण परमहंस जैसे आधुनिक योगी ने भी स्पर्श मात्र से स्वामी विवेकानन्द जैसे कट्टर नास्तिक की मनोवृत्ति को एक साथ ही पलट दिया, तब योगेश्वर श्री कृष्ण के लिए गोपियों को इन्द्रियों के परे ले जाकर अपने सच्चिदानन्दस्वरूप का साक्षात्कार करा देना तो बिलकुल सहज था।

जो लोग इस प्रकार के संबंधों में भोग-वासना की शंका करते हैं, उनकी मनोवृत्ति इस बात की कल्पना ही नहीं कर सकती कि इंन्द्रियजन्य सुख से परे भी कोई सुख है और वह इसकी अपेक्षा कहीं अधिक ऊंचा एवं पवित्र है, परन्तु तुलसीदासजी ने ठीक ही कहा है-

जाकी रही भावना जैसी। प्रभु मूरति देखी तिन तैसी॥

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