क्षेत्रवाद के दो रूप बताएं Pol sanice
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क्षेत्रवाद एक विचारधारा है जो किसी ऐसे क्षेत्र से सबंधित होती है जो धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक या सांस्कृतिक कारणों से अपने पृथक अस्तित्व के लिये जाग्रत है और अपनी पृथकता को बनाए रखने का प्रयास करता रहता है।
क्षेत्रवाद मुख्यतः चार तरीकों से व्यक्त किया जाता है-
किसी क्षेत्र द्वारा भारतीय संघ से संबंध विच्छेद करने की मांग द्वारा ।
एक निश्चित क्षेत्र को पृथक राज्य बनाने की मांग द्वारा ।
किसी क्षेत्र को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की मांग द्वारा।
अंतर्राज्यीय मसलों में अपने पक्ष में समाधान पाने की मांग द्वारा, जैसे- प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकार आदि।
भारत में क्षेत्रवाद के आधार –
भाषाई पहचान – स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भाषाई आधार पर राज्यों का निर्माण समुदायों द्वारा अपनी अलग भाषाई पहचान स्थापित करने की मांग के चलते किया गया था।
असंतुलित विकास- भारत में राज्यों के बीच और राज्यों के अंदर भी विकास-प्रक्रिया में विषमता विद्यमान है। एक ओर जहाँ रोज़गार की तलाश में मुंबई आए उत्तर प्रदेश, बिहार के कामगारों को मराठी क्षेत्रवाद का सामना करना पड़ता है, वहीं महाराष्ट्र के अन्य इलाकों से कम विकसित होने के कारण ही विदर्भ में अलग राज्य की मांग उठती रहती है।
ऐतिहासिक दावे- इतिहास क्षेत्रों की पहचान निर्धारित करने में विशेष भूमिका निभाता है। वर्तमान में पूर्वोत्तर में नए राज्य “नगालिम” या ग्रेटर नागालैंड की मांग ऐसे ही ऐतिहासिक दावे पर आधारित है।
नृजातीय पहचान – विभिन्न जनजातीय समूहों द्वारा अपनी नृजातीय पहचान को सुरक्षित बनाए रखने के प्रयास भी क्षेत्रवाद का कारण बनते हैं, जैसे- बोडोलैंड और झारखण्ड का आंदोलन।
धार्मिक पहचान – पृथक खालिस्तान की मांग अपनी धार्मिक पहचान को आधार बनाकर ही की जाती रही है।
स्थानीय और क्षेत्रीय राजनेताओं की स्वार्थपरक राजनीति ने भी क्षेत्रवाद को पनपने में मदद की है।
आज भारत में विभिन्न आधारों पर कई नए राज्यों के गठन की मांग की जा रही है, जैसे- गोरखालैंड, हरित प्रदेश, पूर्वांचल, बुंदेलखंड, मिथिलांचल आदि। इसके साथ ही भारत के कई प्रदेशों में दूसरे राज्यों से आए लोगों से मार-पीट व अमर्यादित व्यवहार क्षेत्रवादी मानसिकता का ही परिणाम है। यह भारत की एकता और अखंडता के लिये घातक है। सरकारों को क्षेत्रवाद के स्वरूप को समझना होगा। यदि ये विकास की मांग तक सीमित है तो यह उचित है, परंतु यदि क्षेत्रीय टकराव को बढ़ावा देने वाला है तो इसे रोकने के प्रयास किये जाने चाहिये। वर्तमान में क्षेत्रवाद संसाधनों पर अधिकार करने और विकास की लालसा के कारण अधिक पनपता दिखाई दे रहा है। इसका एक ही उपाय है कि विकास योजनाओं का विस्तार सुदूर तक हो। समविकासवाद ही क्षेत्रवाद का सही उत्तर हो सकता है।