क्षुधात रंतिदेव ने दिया करस्थ थाल भी,
तथा दधीचि ने दिया परार्थ अस्थिजाल
उशीनर क्षितीश ने स्वमांस दान भी किया,
सहर्ष वीर कर्ण ने शरीर-चर्म भी ।
अनित्य देह के लिए अनादि जीव क्या डरे?
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे can some one explain this? this is poem मनुष्यता
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क्षुधात रंतिदेव ने दिया करस्थ थाल भी,
तथा दधीचि ने दिया परार्थ अस्थिजाल
उशीनर क्षितीश ने स्वमांस दान भी किया,
सहर्ष वीर कर्ण ने शरीर-चर्म भी ।
अनित्य देह के लिए अनादि जीव क्या डरे?
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे
संदर्भ : कवि मैथिली शरण गुप्त की ‘मनुष्यता’ नामक कविता इन पंक्तियों का व्याख्या इस प्रकार है...
व्याख्या : कवि कहते हैं कि भारतवर्ष में अनेक महान दानी लोगों की परंपरा रही है, जिन्होंने जन-साधारण के कल्याण के लिए अपने प्राणों की बाजी लगाने से भी संकोच नहीं किया।
रंतिदेव नाम के राजा ने स्वयं भूखे रहकर भी एक भूखे को अपना भोजन दान कर दिया था।
दधीचि ऋषि ने देवताओं की रक्षा के लिए अपने प्राणों को न्यौछावर कर अपनी अस्थियों का दान कर दिया था, जिससे उनकी अस्थियों से वज्र बनाया जा सके और देवता असुरों से मुकाबला कर सकें।
महाभारत के ही एक पात्र दानवीर कर्ण जो अपने दान के लिए प्रसिद्ध थे, उन्होंने इंद्र द्वारा दान मांगने परअपना कवच-कुंडल दान कर दिया जबकि वह कवच-कुंडल ही कर्ण के रक्षा-कवच थे।
गांधार देश के राजा उशीनर ने भी कबूतरों के प्राणों की रक्षा के लिए अपने शरीर का माँस काटकर दान कर दिया। कवि इन महापुरुषों के नाम उदाहरण को लेकर यह समझाना चाहता है कि यह शरीर नश्वर है। यह हमेशा नहीं रहने वाला इसलिए इसका मोह नहीं करना चाहिए। जब कभी आवश्यकता पड़े तो मानवता के कल्याण के लिए इस शरीर का को दान करने से नहीं चूकना चाहिए।
कवि के कहने का यह है कि मनीष को परोपकार के कार्य करने के लिए, दान के कार्य के लिए, मनुष्य के कल्याण के लिए यदि आवश्यकता पड़े तो अपने इस नश्वर शरीर का मोह नही करना चाहिए।