कौटिल्य के आर्थिक विचार
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(1) वरत- कौटिल्य ने अपनी पुस्तक 'अर्थशास्त्र' में 'वरत' शब्द का प्रयोग किया है जिसका अर्थ है "राष्ट्रीय अर्थशास्त्र"। इन्होंने राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के अंतर्गत कृषि, व्यापार एवं पशुपालन को राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के अंतर्गत शामिल किया।
श्रम कल्याण के संबंध में- कौटिल्य का मत श्रम कल्याण के विषय में सकारात्मक था। वे चाहते थे कि श्रमिकों की मज़दूरी न्यूनतम जीवन-निर्वाह सिद्धान्त के अनुसार तय होना चाहिए। मज़दूरों के पारश्रमिक की दरें , समय, स्थान तथा उनकी दशाओं को ध्यान में रखकर तय की जानी चाहिए।
कृषि के संबंध में- कौटिल्य के अनुसार राज्य के सभी व्यवसाय को तीन वर्गों में बाँटा गया- (1) कृषि, (2) पशुपालन एवं (3) वाणिज्य। जिसमें कृषि को महत्वपूर्ण माना गया। इसके अंतर्गत कौटिल्य ने सुझाव दिया कि कृषि के विकास के लिए राजा को चाहिए कि वह बेकार भूमि पर किसानों को रहने की अनुमति दे ताकि वे वहां रहते हुए उस बेकार भूमि का सदुपयोग कर सकें। राजा उन्हें बीज तथा बैल आदि की सहायता भी दे। राजा के द्वारा कर्ज और समय-समय पर करों में छूट भी देनी चाहिये। सिंचाई के लिए, तालाबों और कुँओं का निर्माण कराना। बांधों का प्रबंध कराना आदि राजा के अधिकार क्षेत्र और कर्तव्यों में शामिल होना चाहिए।