कीदृशस्म लसुंहस्म भुखे भृगा: न प्रवर्वशस्न्त ?
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हेमन्त में बहुदा घनों से पूर्ण रहता व्योम है।
हेमन्त में बहुदा घनों से पूर्ण रहता व्योम है।पावस निशाओं में तथा हँसता शरद का सोम है॥
हेमन्त में बहुदा घनों से पूर्ण रहता व्योम है।पावस निशाओं में तथा हँसता शरद का सोम है॥हो जाये अच्छी भी फसल, पर लाभ कृषकों को कहाँ।
हेमन्त में बहुदा घनों से पूर्ण रहता व्योम है।पावस निशाओं में तथा हँसता शरद का सोम है॥हो जाये अच्छी भी फसल, पर लाभ कृषकों को कहाँ।खाते, खवाई, बीज ऋण से हैं रंगे रक्खे जहाँ॥
हेमन्त में बहुदा घनों से पूर्ण रहता व्योम है।पावस निशाओं में तथा हँसता शरद का सोम है॥हो जाये अच्छी भी फसल, पर लाभ कृषकों को कहाँ।खाते, खवाई, बीज ऋण से हैं रंगे रक्खे जहाँ॥आता महाजन के यहाँ वह अन्न सारा अंत में।
हेमन्त में बहुदा घनों से पूर्ण रहता व्योम है।पावस निशाओं में तथा हँसता शरद का सोम है॥हो जाये अच्छी भी फसल, पर लाभ कृषकों को कहाँ।खाते, खवाई, बीज ऋण से हैं रंगे रक्खे जहाँ॥आता महाजन के यहाँ वह अन्न सारा अंत में।अधपेट खाकर फिर उन्हें है काँपना हेमंत में॥
हेमन्त में बहुदा घनों से पूर्ण रहता व्योम है।पावस निशाओं में तथा हँसता शरद का सोम है॥हो जाये अच्छी भी फसल, पर लाभ कृषकों को कहाँ।खाते, खवाई, बीज ऋण से हैं रंगे रक्खे जहाँ॥आता महाजन के यहाँ वह अन्न सारा अंत में।अधपेट खाकर फिर उन्हें है काँपना हेमंत में॥बरसा रहा है रवि अनल, भूतल तवा सा जल रहा।
हेमन्त में बहुदा घनों से पूर्ण रहता व्योम है।पावस निशाओं में तथा हँसता शरद का सोम है॥हो जाये अच्छी भी फसल, पर लाभ कृषकों को कहाँ।खाते, खवाई, बीज ऋण से हैं रंगे रक्खे जहाँ॥आता महाजन के यहाँ वह अन्न सारा अंत में।अधपेट खाकर फिर उन्हें है काँपना हेमंत में॥बरसा रहा है रवि अनल, भूतल तवा सा जल रहा।है चल रहा सन सन पवन, तन से पसीना बह रहा॥
हेमन्त में बहुदा घनों से पूर्ण रहता व्योम है।पावस निशाओं में तथा हँसता शरद का सोम है॥हो जाये अच्छी भी फसल, पर लाभ कृषकों को कहाँ।खाते, खवाई, बीज ऋण से हैं रंगे रक्खे जहाँ॥आता महाजन के यहाँ वह अन्न सारा अंत में।अधपेट खाकर फिर उन्हें है काँपना हेमंत में॥बरसा रहा है रवि अनल, भूतल तवा सा जल रहा।है चल रहा सन सन पवन, तन से पसीना बह रहा॥देखो कृषक शोषित, सुखाकर हल तथापि चला रहे।
हेमन्त में बहुदा घनों से पूर्ण रहता व्योम है।पावस निशाओं में तथा हँसता शरद का सोम है॥हो जाये अच्छी भी फसल, पर लाभ कृषकों को कहाँ।खाते, खवाई, बीज ऋण से हैं रंगे रक्खे जहाँ॥आता महाजन के यहाँ वह अन्न सारा अंत में।अधपेट खाकर फिर उन्हें है काँपना हेमंत में॥बरसा रहा है रवि अनल, भूतल तवा सा जल रहा।है चल रहा सन सन पवन, तन से पसीना बह रहा॥देखो कृषक शोषित, सुखाकर हल तथापि चला रहे।किस लोभ से इस आँच में, वे निज शरीर जला रहे॥
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