(क) विपृथग्विनानाधिस्तृतीयाऽन्यतरस्याम्। पृथक् (अलग्), विना, नाना (बिना) शब्दों के साथ तृतीया, द्वितीया तथा पञ्चमी विभक्तियों में से को एक हो सकती है। जैसे- जलं, जलेन, जलाद विना जीवनं नास्ति सम्भवम्।
Answers
Answer:
Explanation:
विशेष – संबंध (Genetive) की गणना कारकों में नहीं होती, क्योंकि इसका क्रिया से सीधा संबंध नहीं होता। इसमें षष्ठी विभक्ति होती है और इसका चिह्न- का, के, की है।
विभक्ति – संज्ञा शब्दों के क्रिया के साथ संबंध को प्रकट करने के लिए जो प्रत्यय लगाया जाता है उसे कारक विभक्ति कहते हैं। सामान्यतः कर्ता कारक का बोध कराने के लिए प्रथमा विभक्ति, कर्म कारक का बोध कराने के लिए द्वितीया विभक्ति, करण कारक का बोध कराने के लिए तृतीया विभक्ति, सम्प्रदान कारक का बोध कराने के लिए चतुर्थी विभक्ति, अपादान कारक का बोध कराने के लिए पंचमी विभक्ति तथा अधिकरण कारक का बोध कराने के लिए सप्तमी विभक्ति प्रयुक्त होती है।
कारक तथा विभक्ति में अन्तर – कारक विभक्ति का पर्यायवाची शब्द नहीं है क्योंकि कर्तृवाच्य में तो कर्ता कारक में प्रथमा विभक्ति होती है परंतु कर्मवाच्य तथा भाववाच्य में कर्ता कारक में तृतीय विभक्ति होती है। इसी प्रकार कर्तृवाच्य में कर्म में द्वितीया विभक्ति होती है, किंतु कर्मवाच्य में कर्म में प्रथमा विभक्ति होती है।
षष्ठी विभक्ति – एक संज्ञा शब्द का दूसरे संज्ञा शब्द से संबंध बताने में षष्ठी विभक्ति होती है। प्रमुख रूप से ये चार संबंध हैं
(क) स्व-स्वामिभाव संबंध, जैसे – साधु का धन (साधोः धनम्)।
(ख) जन्य-जनकभाव संबंध, जैसे – पिता का पुत्र (पितुः पुत्रः)।
(ग) अवयवावयविभाव संबंध, जैसे – पशु का पैर (पशोः पादः)।
(घ) स्थान्यादेशभाव संबंध, जैसे – ब्रू के स्थान पर वच् (ब्रुवोः वचिः)।
सम्बोधन कारक – उपर्युक्त विभक्तियों के अतिरिक्त एक सम्बोधन कारक होता है जिनका अंतर्भाव प्रथमा विभक्ति में कर लिया जाता है। सम्बोधन, एकवचन में प्रथमा विभक्ति के एकवचन के रूप में कहीं थोड़ा परिवर्तन हो जाता है, द्विवचन तथा बहुवचन के रूप पूर्णतया प्रथमा विभक्ति के समान चलते हैं।
उपपद विभक्ति – जो विभक्ति किसी पद विशेष (प्रायः अव्यय) के योग में आती है उसे उपपद विभक्ति कहते हैं। जैसे ‘सह’ के योग में तृतीया उपपद विभक्ति होती है।
कारक तथा उपपद विभक्ति – यदि कहीं कारक तथा उपपद विभक्ति दोनों भिन्न-भिन्न हों, तो वहाँ कारक विभक्ति को ही बलवान् मानकर उसका प्रयोग किया जाता है। जैसे ‘नमस्करोति’ क्रिया के कर्म में द्वितीया कारक विभक्ति का प्रयोग उचित है (नमस्करोति = नमः + करोति) भले ही नमः के योग में चतुर्थी उपपद विभक्ति का नियम रहता है।
उदाहरण – गुरुभ्यः नमः, गुरून् नमस्करोमि। प्रथम वाक्य में नम: के योग में गुरुभ्यः में चतुर्थी उपपद विभक्ति का प्रयोग उचित है किंतु द्वितीय वाक्य में नमस्करोति क्रिया के साथ कर्म (गुरून्) में द्वितीया विभक्ति का प्रयोग उचित है।
प्रथमा विभक्ति
(Nominative Case)
1. किसी शब्द का नियत अर्थ बताने में, लिंग का बोध कराने में, परिमाण का ज्ञान कराने में, वचन मात्र के निर्देश में प्रथमा विभक्ति होती है।
(क) प्रातिपदिक का अर्थ बताने में-कृष्णः (कृष्ण), श्रीः (लक्ष्मी), ज्ञानम् (ज्ञान) शब्दों में नियत अर्थ बताने के लिए प्रथमा विभक्ति प्रयुक्त हुई है।
(ख) लिंग का बोध कराने में – तटः (पुल्लिङ्ग), तटी (स्त्रीलिङ्ग), तटम् (नपुंसकलिङ्ग) शब्द में प्रथम विभक्ति है।
(ग) परिमाण मात्र में – द्रोणो व्रीहिः (द्रोण भर चावल)। यहाँ द्रोणः प्रथमा विभक्ति है तथा यह व्रीहिः का विशेषण हो गया है।
(ग) वचन का ज्ञान कराने में-एकः (एकवचन), द्वौ (द्विवचन), बहवः (बहुवचन) शब्दों में प्रथमा विभक्ति है तथा विशिष्ट संख्या की सूचना भी मिलती है।