India Languages, asked by fattusingh1972, 9 months ago

काव्य सू नाटकम राम-राम तंत्र रम्यास शकुंलता use mukti ka pratipadan kijiye

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Answered by Anonymous
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महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में अवतार के उद्देश्य और सिद्धान्त को सुन्दर ढंग से प्रतिपादित किया है। उनका मत है कि परमात्मा तत्कालीन विकृतियों के समाधान के लिये किसी सर्वगुण सम्पन्न ऐसे व्यक्तित्व का सृजन कर देते हैं जो अपने पुरुषार्थ द्वारा समाज की विकृतियों का समाधान कर अपने नेतृत्व में लोगों को इच्छित दिशा में बढ़ने की प्रेरणा देता है। उत्तर काण्ड में वामन भगवान के संबंध में बलि कहते हैं ।

प्रादुर्भावं विकुरुते येनैतन्निधन नयेत् । पुनरेवात्मनात्मानमधिष्ठाय स तिष्ठति ।।

ये किसी ऐसे को उत्पन्न कर देते हैं, जो उपद्रवी का नाश कर डालता है और यह स्वयं अधिष्ठाता के अधिष्ठाता ही बने रहते हैं। अवतारी पुरुष अपनी श्रेष्ठता प्रकट करने के उद्देश्य से आचरण नहीं करते। उनका उद्देश्य यह होता है कि मनुष्य अपने जीवन में श्रेष्ठता को जागृत करने का मर्म एवं ढंग उनको देखकर सीख सके। इसलिए वे अपने आपको सामान्य मनुष्य की मर्यादा में रखकर ही कार्य करते हैं।

श्रीराम काल द्वारा अपने उद्देश्य की पूर्ति की सूचना प्राप्त होने पर अपने इस उत्तरदायित्व को स्वीकार करते हुए कहते हैं

त्रयाणामपि लोकानां कार्यार्थं मम सम्भवतः । भद्रं तेऽस्तु गमिष्यामि यत एवाहमागतः ।।

तीनों लोकों का कार्य सिद्ध करने ही के लिये मेरा यह अवतार है। तुम्हारा मंगल हो। मैं जहां से आया हूं वहां ही चला जाऊंगा। जागृतात्मा व्यक्ति में भगवान की आभा प्रकट होती है। आत्मा परमात्मा का ही अंश है और ईश्वर अपने आपको अनेक रूपों में व्यक्त करते हैं। अपनी वास्तविकता को न समझ पाने के कारण ही हम मूर्छित से रहते हैं। यदि हम अपनी शक्ति को समझ जायं तो कठिनाइयों पर विजय पा सकते हैं। अवतारी पुरुष इस रहस्य को जानते हैं।

लक्ष्मण लंका युद्ध के अवसर पर श्रीराम को यही स्मरण दिलाते हुए कहते हैं-

दिव्यं च मानुषं च त्वमात्मनश्च पराक्रमम् । इक्ष्वाक्वृषभावेक्ष्य यतस्व द्विषता वधे ।।

हे इक्ष्वाकुश्रेष्ठ! आप अपने दिव्य और मानवी पराक्रम की ओर देख कर, शत्रुवध का प्रयत्न कीजिये। भगवान के अवतार का उद्देश्य धर्म रक्षा तथा अधर्म का नाश होता है, वे स्वतः तो अपने इस कर्तव्य को समझते ही हैं अन्य पात्र भी उसे जानते हैं।

राक्षस मारीच रावण से कहता है

रामो विग्रहवान्धर्मः साधु सत्यपराक्रमः । राजा सर्वस्य लोकस्य देवानां मघवानिय ।।

राम तो धर्म की साक्षात् मूर्ति हैं, वे बड़े साधु और सत्य पराक्रमी हैं। जिस प्रकार इन्द्र देवताओं के नायक हैं, इसी प्रकार राम भी सब लोकों के नायक हैं। सत् पुरुष तो श्रीराम के इस रूप से परिचित हैं ही।

रामायण के प्रारम्भ में ही महर्षि वाल्मीकि को राम का परिचय देते हुए नारद जी कहते हैं

एष विग्रहवान्धर्म एष वीर्यवतां वरः । एष बदध्याधिको लोके तपसश्च परायणम् ।।

वे धर्म की मूर्ति ही हैं, तथा तेजस्वी बुद्धिमान एवं लोक कल्याण के लिए सब प्रकार से तप साधना में तत्पर हैं। कर्तव्य परायणता ही धर्म है तथा संयम और सेवा द्वारा ही धर्म लाभ और उसका संरक्षण संभव है उसी प्रसंग में नारद कहते हैं

धर्मज्ञः सत्यसन्धश्च प्रजानां च हिते रतः । यशस्वी ज्ञानसंपन्नः शुचिर्वश्यः समाधिमान् ।।

वे धर्म के जानने वाले सत्य-प्रतिज्ञ प्रजा की भलाई करने वाले कीर्तिवान, ज्ञानी, पवित्र, मन और इन्द्रियों को वश में करने वाले तथा योगी हैं।

स च सर्वगुणोपेतः कौसल्यानन्दवर्धनः । समुद्र इव गाम्भोर्ये धैर्येण हिमवानिय ।।

वे सगुणों के भण्डार, मां कौशल्या के आनन्द को बढ़ाने वाले, समुद्र के समान गंभीर तथा हिमालय के समान धैर्यवान एवं दृढ़ हैं। राम में गुण एवं विभूतियां इतनी प्रखर दिखाई देती हैं कि उनकी उपमा मनुष्यों से नहीं दी जा सकती। उनमें अतिमानवीयता, ईश्वर की झलक मिलती है। नारद जी आगे कहते हैं

विष्णुना सदृशो वोर्ये सामवत्प्रियदर्शनः । कालाग्निसदृशः क्रोधे क्षमया पृथिवीसमः ।।

वे विष्णु के समन पराक्रमी, चन्द्रमा के समान शीतल एवं प्रिय, क्रोधित होने पर मृत्यु के समान, तथा पृथ्वी के समान क्षमा करने वाले हैं। धनुषयज्ञ के प्रकरण में राम की सफलता के बाद राजा जनक ऋषि विश्वामित्रजी से ऐसे ही भाव व्यक्त करते हैं

भगवन् दृष्टवीर्यो मे रामो दशरथात्मजः । अत्यदभुत मचिन्त्यं च न तर्कितामिदं मया ।।

हे भगवन्! मैंने दशरथ पुत्र राम का अद्भुत, अचिन्त्य तथा तर्क से परे, पराक्रम देखा। महावीर हनुमान भी इन्हें इसी रूप में देखते हैं।

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