काव्य ऊधौ जोग जोग हम नाहीं। अबला सार-ज्ञान कह जानें, कैसैं ध्यान कैसैं ध्यान धराहीं। तेई मूंदन नैन कहत हौ, हरि मूरति जिन माहीं। ऐसी कथा कपट की मधुकर, हमतें सुनी न जाहीं। स्रवन चीरि सिर जटा बधावहु, ये दुख कौन समाहीं। चंदन तजि अंग भस्म बतावत, बिरह-अनल अति दाहीं। जोगी भ्रमत जाहि लगि भूले, सो तौ है अप माहीं। सूर स्याम ते न्यारी न पल-छिन, ज्यौं घट परछाहीं।।7।। -
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