केवट की बातें सुनकर रामचंद्र जी क्यों हँस दिए?
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केवट राम रजायसु पावा। पानि कठवता भरि लेइ आवा॥ केवट श्री रामचन्द्रजी की आज्ञा पाकर कठौते में भरकर जल ले आया।
अति आनंद उमगि अनुरागा। चरन सरोज पखारन लागा॥ अत्यन्त आनंद और प्रेम में उमंगकर वह भगवान के चरणकमल धोने लगा।
सब देवता फूल बरसाकर सिहाने लगे कि इसके समान पुण्य की राशि कोई नहीं है॥
केवट ने परिवार सहित भगवान के चरण धोये हैं। और फिर भगवान के चरणों का चरणामृत(चरणोदक) पिया है। केवट कहते हैं भगवान आपको तो मैं बाद में पार उतारूंगा लेकिन आपके चरणामृत ने मेरे पितरों को भवसागर से पार कर दिया। और फिर आनंदपूर्वक प्रभु श्री रामचन्द्रजी को गंगाजी के पार ले गया॥
जब पार नाव लग गई है तो निषादराज गुह और लक्ष्मणजी सहित श्री सीताजी और श्री रामचन्द्रजी नाव से उतरकर गंगाजी की बालू रेत में खड़े हो गए। केवट उतरकर भगवान के सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो गया है। अब भगवान को थोड़ा संकोच हुआ है और मन में सोच रहे हैं की केवट को कुछ देना चाहिए।
जैसे ही भगवान के मन में आया है सीधे जानकी जी के मन में आ गया। क्योंकि राम का मन तो सीता जी ही हैं।
पिय हिय की सिय जाननिहारी। तुरंत सीताजी ने अपनी ऊँगली से रत्नजड़ित अंगूठी उतारी।
और कृपालु श्री रामचन्द्रजी ने केवट से कहा, नाव की उतराई लो।
केवट ने व्याकुल होकर चरण पकड़ लिए॥ केवट कहते हैं-
नाथ आजु मैं काह न पावा। मिटे दोष दुख दारिद दावा॥ बहुत काल मैं कीन्हि मजूरी। आजु दीन्ह बिधि बनि भलि भूरी॥
हे नाथ! आज मैंने क्या नहीं पाया! मेरे दोष, दुःख और दरिद्रता की आग आज बुझ गई है। मैंने बहुत समय तक मजदूरी की। विधाता ने आज बहुत अच्छी भरपूर मजदूरी दे दी।
अब कछु नाथ न चाहिअ मोरें। दीन दयाल अनुग्रह तोरें॥ हे नाथ! हे दीनदयाल! आपकी कृपा से अब मुझे कुछ नहीं चाहिए।
बहुत कीन्ह प्रभु लखन सियँ नहिं कछु केवटु लेइ। बिदा कीन्ह करुनायतन भगति बिमल बरु देइ॥
अर्थ : प्रभु श्री रामजी, लक्ष्मणजी और सीताजी ने बहुत आग्रह (या यत्न) किया, पर केवट कुछ नहीं लेता। तब करुणा के धाम भगवान श्री रामचन्द्रजी ने निर्मल भक्ति का वरदान देकर उसे विदा किया॥
इस प्रकार प्रभु श्री राम ने केवट पर अपनी कृपा की है।
बोलिए सीता-राम जी की जय !!
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