क्या आजादी की कोई सीमा होनी चाहिए यदि हां तो क्या और क्यों
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आजकल देश में अभिव्यक्ति की आजादी और उसकी सीमा को लेकर बहुत गंभीर बहस चल रही है। एक बड़े वर्ग के अनुसार अभिव्यक्ति की आजादी की कोई सीमा नहीं होनी चाहिए तो वहीं दूसरा वर्ग चाहता है कि अभिव्यक्ति की असीमित आजादी पर लगाम लगे।
देश में अभिव्यक्ति की आजादी पर नियंत्रण कायम करने वाले कानून की व्याख्या भारतीय दंड संहिता के अनुच्छेद 124 ए में की गई है जिसके अनुसार कोई भी व्यक्ति सरकार-विरोधी सामग्री लिखता है या बोलता है या फिर ऐसी सामग्री का समर्थन भी करता है तो उसे आजीवन कारावास या तीन साल की सज़ा हो सकती है। यह जुर्म एक गैर जमानती जुर्म करार दिया गया है। हालांकि एक ओर भारतीय संविधान में देशद्रोह एक अपराध है तो वहीं दूसरी ओर संविधान में भारतीय नागरिकों को अभिव्यक्ति की आज़ादी भी दी गई है। कहते हैं एक म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकतीं। कुछ ऐसा ही हाल संविधान में इन दोनों कानूनों की वजह से हो रहा है।
हाल ही में असीम त्रिवेदी द्वारा राष्ट्रीय चिह्न अशोक स्तंभ को लेकर बनाए गए कार्टून के विरोध में उन पर देशद्रोह का केस चलाया गया और इसी के एक दिन बाद सुप्रीम कोर्ट ने बयान दिया कि मीडिया के ऊपर किसी तरह की सेंसरशिप नहीं होगी लेकिन मीडिया को खुद अपने लिए सीमाएं और मानक निर्धारित करनी होंगी। इन दोनों मामलों ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कई सवाल खड़े किए हैं जिसमें सबसे अहम है अभिव्यक्ति की आजादी कैसी और कितनी हो?
इस पूरे मुद्दे पर एक वर्ग ऐसा है जो अभिव्यक्ति की आजादी में रत्ती भर भी कमी नही चाहता है। उनके अनुसार हर इंसान को अपनी सरकार का विरोध करने का पूरा हक है और इसके लिए वह किसी भी साधन का प्रयोग कर सकता है। इनके अनुसार दुनिया के कई देशों में अभिव्यक्ति की आजादी पर कोई पाबंदी नही है तो फिर भारत क्यों अंग्रेजी राज के इस पुराने रुढ़िवादी कानून को ढो रहा है। ऐसे लोगों का मानना है कि देशद्रोह से जुड़े कानून की आड़ में सरकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रहार करती है।