क्या आपको लगता है कि हार नया आदेश जो औद्योगिकरण करना चाहता है उसे दूसरे देशों से टक्कर लेना जरूरी है क्या इसके और तरीके हो सकते हैं
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उन्नीसवीं शताब्दी की औद्योगिक क्रांति के आगमन के साथ-साथ मनुष्य के लिये बेहतर जीवन सुविधाएँ प्रदान करने की दिशा में विश्व तेजी से आगे बढ़ा अर्थात आर्थिक विकास की गति तेज हुई। परन्तु इसके साथ ही, सभी रूपों में प्रकृति की शुद्धता के स्तर में गिरावट भी आनी प्रारम्भ हो गई। विश्व में आज भीड़ बढ़ रही है क्योंकि जनवृद्धि पर प्रभावशाली नियंत्रण नहीं हो पा रहा है जबकि आर्थिक क्रियाओं के बढ़ने से पृथ्वी की सीमित क्षमताओं पर दबाव पड़ रहा है। इसके परिणामस्वरूप प्रतिव्यक्ति प्राकृतिक सुविधा की उपलब्धि कम हो रही है और आर्थिक वृृद्धि के परोक्ष प्रभाव जनसंख्या के बड़े भाग पर ऐसा असर डाल रहे हैं, कि विकास के सकारात्मक योगदान को भी निष्प्रभावी कर दिया है। ये प्रभाव हैं, भूमि की गुणवत्ता में ह्रास, वायु एवं जल प्रदूषण, प्रदूषण से जुड़ी हुई बीमारियों की बढ़ती संख्या और पशु एवं वनस्पतियों की कई प्रजातियों के विलुप्त होने का खतरा।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद औद्योगिकरण का महत्त्व तेजी से बढ़ा परन्तु उस समय पर्यावरण की अवनति के विषय में लोगों को ज्यादा चेतना नहीं थी। फिर भी कुछ बातों ने राष्ट्रों का ध्यान जैविक सन्तुलन के दबावों में पड़ने वाले प्रभावों की ओर खींचा है। लांस ऐंजिल्स का स्मौग, प्रमुख नदियों जैसे मौसल, एल्क और राइन में जल प्रदूषण एवं मिनामाता (जापान) में पारे द्वारा रासायनिक प्रदूषण राष्ट्रों के ध्यान में आया है।
सन 1972 में स्टाॅकहोम में मानव पर्यावरण पर एक सम्मेलन आयोजित किया गया था जिसमें विभिन्न प्रयासों द्वारा पर्यावरण की समस्याओं से जूझने की आवश्यकता पर बल दिया गया। वास्तव में 1970 के दशक से ही पर्यावरण के सम्बन्ध में बढ़ती हुई जागरुकता में संस्कारों को प्रतिरोधात्मक कदम उठाने के लिये बाध्य कर दिया गया है। आज की परिस्थितियों में विकास को प्राप्त करने के साथ-साथ पर्यावरण को भी सुरक्षित रखने के लिये पर्यावरण की सुरक्षा के उपायों को अपनाया जाना जरूरी हो गया है। भारत जैसे विकासशील देश के लिये तो यह और भी अधिक महत्त्वपूर्ण है, जहाँ लोगों की बढ़ती हुई आवश्यकताओं व मांग को पूरा करने के लिये औद्योगिक प्रगति अनिवार्य है।
ऐसा देखा गया है कि, औद्योगीकरण ने अछूते क्षेत्रों में जहाँ कि अभी तक कोई उद्योग नहीं लगे थे। औद्योगिक इकाइयों का काफी मात्रा में सकेंद्रण कर दिया है। अभी तक जो क्षेत्र उद्योगों की स्थापना की दृष्टि से ठीक नहीं समझे जाते थे, वे भी अब आधारभूत संरचना के विस्तार के कारण आर्थिक विकास के सम्भावनायुक्त क्षेत्र बन गए हैं। फलस्वरूप ये नए अछूते क्षेत्र भी अब औद्योगीकरण की सम्भावित बुराइयों और दुष्प्रभावों की चपेट में आ रहे हैं। नई नीति में निजीकरण एवं लाभ बढ़ाने पर जोर दिया गया है और लाभदायकता का विचार पर्यावरण की सुरक्षा पर कोई ध्यान नहीं देता। अधिकतर उद्योग, प्रदूषण नियंत्रण के उपायों पर किए जाने वाले खर्च को मात्र पैसे की बर्बादी मानते हैं। भारत में लघु स्तरीय या असंगठित क्षेत्र ही इसके लिये दोषी नहीं हैं। बल्कि अक्सर तो बड़े औद्योगिक घराने ही ज्यादा प्रदूषण फैलाते हैं।
केन्द्र और राज्य सरकारें पर्यावरण की रक्षा के लिये कोष आवंटित करती हैं परन्तु क्रियान्वयन के स्तर पर अनेकों बाधाएँ आ खड़ी होती हैं जैसे- कार्यालयीन उदासीनता, निहित स्वार्थ, कठोर पर्यावरणीय मानक तय कर देना आदि। भारत में वर्तमान प्रदूषण स्तर को देखते हुए इस मानक को प्राप्त कर पाना मुश्किल ही है।नई औद्योगिक नीति के अनुसार, नई औद्योगिक इकाइयाँ स्थापित करने के लिये क्लीयरेंस देने हेतु अब प्रत्येक स्थिति या केस का मूल्यांकन करने की जरूरत नहीं है। हालाँकि पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन एवं क्लीयरेंस अभी भी विद्यमान है पर यह उतना प्रभावशाली नहीं है। यह पाया गया है कि क्लीयरेंस के बाद प्रदूषण नियंत्रण उपायों को जो सतत निरीक्षण होना चाहिए वह बहुत ही कमजोर है। इसके अलावा पर्यावरण प्रबंधन के क्षेत्र में पेशेवर लोगों की कमी भी एक बाधा है। नई नीति में सुधारों के एकीकृत भाग के रूप में प्रदूषण नियंत्रण को प्रभावशाली ढंग से बढ़ावा नहीं दिया गया।
लगभग सभी क्षेत्रों में विदेशी निवेश को छूट मिलने से बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ तथा अन्य विदेशी निवेशक अब भारत में बहुत सी वस्तुओं का उत्पादन कर सकेंगे, जिनमें से कुछ ऐसी भी होंगी जिन्हें वे अपने देश में उत्पादित नहीं कर सकते क्योंकि वहाँ महँगे व कठोर पर्यावरण नियमन की बाधाएँ हैं। और वहाँ की जनता भी इनके खिलाफ सजग हैं। भोपाल गैस त्रासदी अभी तक लोगों के मस्तिष्क में ताजा है।
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@genius743
you know sanskrit very welll
nice.....