Hindi, asked by radhakrishan2324, 1 month ago

क्या हिंदी भाषा में विदेशी शब्दों का प्रयोग करना उचित है अपने विचार लिखें​

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Answered by Anonymous
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हिन्दी विश्व में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं में से एक है। हिन्दी अपने आप में एक समर्थ भाषा है। इस देश में भाषा के मसले पर हमेशा विवाद रहा है। भारत एक बहुभाषी देश है। हिन्दी भारत में सर्वाधिक बोली तथा समझे जाने वाली भाषा है इसीलिए वह राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकृत है।

लेकिन आजकल अन्य भाषाएं जो हिन्दी के साथ घुसपैठ कर रही हैं वह एक विचारणीय बिंदु है। जबसे प्रिंट मीडिया खुलकर सामने आई है तब से हिन्दी का अन्य भाषाओं के साथ मिलाप बढ़ गया है। ये शब्द ऐसे नहीं कि इनकी जगह अपनी भाषा के सीधे-सादे बोलचाल के शब्द लिखे ही न जा सकते हों।

जो अर्थ इन मिश्रित शब्दों से निकलता है उसी अर्थ को देने वाले अपनी हिन्दी की भाषा के शब्द आसानी से मिल सकते हैं। पर कुछ चाल ही ऐसी पड़ गई है कि हिन्दी के शब्द लोगों को पसंद नहीं आते। वे यथासंभव मिश्रित भाषा के शब्द लिखना ही जरूरी समझते हैं।फल इसका यह हुआ है कि हिन्दी दो तरह की हो गई है। एक तो वह जो सर्वसाधारण में बोली जाती है, दूसरी वह जो पुस्तकों और अखबारों में लिखी जाती है। पुस्तकें या अखबार लिखने का सिर्फ इतना ही मतलब होता है कि जो कुछ उसमें लिखा गया है वह पढ़ने वालों की समझ में आ जाए।

जितने ही अधिक लोग उन्हें पढ़ेंगे उतना ही अधिक लिखने का मतलब सिद्ध होगा। तब क्या जरूरत है कि भाषा क्लिष्ट करके पढ़ने वालों की संख्या कम की जाए, मिश्रित भाषा के शब्दों से घृणा करना उचित नहीं किंतु इससे खुद का अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है।

यह एक बड़ी विडंबना है कि जिस भाषा को कश्मीर से कन्याकुमारी तक सारे भारत में समझा जाता हो उस भाषा के प्रति घोर उपेक्षा व अवज्ञा का भाव हमारे राष्ट्रीय हितों की सिद्धि में कहां तक सहायक होंगे? हिन्दी का हर दृष्टि से इतना महत्व होते हुए भी प्रत्येक स्तर पर इसकी इतनी उपेक्षा क्यों?

यहां यह प्रश्न उठता है कि क्या इस मुल्क में बिना भाषा के मिलावट के काम नहीं चला सकते? सफेदपोश लोगों का उत्तर है- हिन्दी में सामर्थ्य कहां है? शब्द कहां है? ऐसी हालत में मेरा मानना है कि विज्ञान, तकनीक, विधि, प्रशासन आदि पुस्तकों के संदर्भ में हिन्दी भाषा की क्षमता पर प्रश्न खड़े करने वालों को यह ध्यान देना होगा कि भाषा को बनाया नहीं जाता बल्कि वह हमें बनाती है। आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है। हिन्दी में हमें नए शब्द गढ़ने पड़ेंगे।

भाषा एक कल्पवृक्ष के समान होती है, उसका दोहन करना होता है। हिन्दी भाषा को प्रत्येक क्षेत्र में उत्तरोत्तर विकसित करना है। लेकिन इस तरफ कम ही ध्यान दिया गया है और अन्य भाषा को हिन्दी में मिलाकर आसान बनाने की कोशिश की गई।

टीवी के निजी चैनलों ने हिन्दी में अंग्रेजी का घालमेल करके हिन्दी को गर्त में और भी नीचे धकेलना शुरू कर दिया और वहां प्रदर्शित होने वाले विज्ञापनों ने तो हिन्दी की चिंदी ऐसे की जैसे करेला और नीम चढ़ा...

इसी प्रकार से रोज पढ़े जाने वाले हिन्दी समाचार पत्रों, जिनका प्रभाव लोगों पर सबसे अधिक पड़ता है, ने भी वर्तनी तथा व्याकरण की गलतियों पर ध्यान देना बंद कर दिया और पाठकों का हिन्दी ज्ञान अधिक से अधिक दूषित होता चला गया। लेकिन आज जो हिन्दी का स्तर गिरता दिखाई दे रहा है वह पूरी तरह से अंग्रेजी भाषा के बढ़ते प्रभाव के कारण हो रहा है।

आज हर जगह लोग अंग्रेजी के प्रयोग को अपना भाषायी प्रतीक बनाते जा रहे हैं। अगर आज आप किसी को बोलते हैं कि 'यंत्र' तो शायद उसे समझ न आए लेकिन 'मशीन' शब्द हर किसी की समझ में आएगा। इसी प्रकार आज अंग्रेजी के कुछ शब्द प्रचलन में हैं, जो सबकी समझ में है। इसलिए यह कहना कि पूर्णतया हिन्दी पत्रकारिता या अन्य जगहों में सिर्फ हिन्दी भाषा का प्रयोग ही हो, यह तर्कसंगत नहीं है।

हां, यह जरूर है कि हमें अपनी मातृभाषा का सम्मान अवश्य करना चाहिए और उसे अधिक से अधिक प्रयोग में लाने का प्रयास करना चाहिए। भाषा के क्षेत्र में हिन्दी का प्रयोग अपनी सहूलियत के हिसाब से होता रहा है।

दूसरी बड़ी समस्या यह है कि हम अभी भी यही मानते हैं कि अंग्रेजी हिन्दी से बेहतर है इसलिए जान-बूझकर हिन्दी को हिंगलिश बनाकर काम करना पसंद करते हैं और ऐसा मानते हैं कि अगर मुझे अंग्रेजी नहीं आती तो मेरी तरक्की की राह दोगुनी मुश्किल है।

भाषा आम समाज से अलग नहीं है, उसने भी अन्य बोलियों के साथ-साथ विदेशी भाषा के शब्दों को अपना लिया है। इसके साथ ही यह भी सही है कि विचारों की भाषा वही नहीं हो सकती, जो बाजार में बोली जाती है।

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