क्या राजनीतिक प्रतिस्पर्धा एक अच्छी बात है? वर्णन करें
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भारत में लोकसभा चुनाव के दौरान पिछले कुछ वर्षों से राजनीतिक प्रतिस्पर्धा काफी अधिक बढ़ गई है। पहले लोकसभा चुनाव (वर्ष 1951-52) में सिर्फ 55 सियासी दलों ने हिस्सा लिया था, जिनकी संख्या वर्ष 2009 के चुनाव तक आते-आते 370 पहुंच गई। राजनीतिक प्रतिस्पर्धा में सबसे अधिक उछाल नब्बे के दशक में आया जब वर्ष 1989 में चुनाव मैदान में 117 पार्टियां उतरीं जबकि इससे पहले हुए चुनाव (वर्ष 1984) में सिर्फ 38 सियासी दल ही चुनाव में उतरे थे। वर्ष 1989 में हुए नौवें आम चुनाव के बाद से ही देश में गठबंधन की सरकारों का दौर शुरू हुआ। यह प्रतिस्पर्धा चुनाव के मैदान तक ही सीमित नहीं रही। इसका असर लोकसभा के अंदर भी दिखा। आठवीं लोकसभा में जहां 19 पार्टियों के उम्मीदवार सदन में पहुंचे थे, वहीं 1989 के चुनाव तक यह संख्या 33 तक जा पहुंची थी।
वर्ष 2009 के चुनाव में यह संख्या 37 थी और वर्तमान में लोकसभा में 39 पार्टियों के सांसद मौजूद हैं। वर्ष 1989 चुनाव से ही क्षेत्रीय पार्टियों ने भी लोकसभा चुनाव में अपनी उपस्थिति दर्शानी शुरू कर दी थी। इसके बाद देश के हर राज्य में अलग तरह की राजनीतिक प्रतिस्पर्धा सामने आई। जैसे गुजरात, मध्य प्रदेश और राजस्थान में चुनाव द्विध्रुवीय (कांग्रेस और भाजपा) रहे। कुछ राज्य जैसे नगालैंड और मिजोरम में भी द्विध्रुवीय होने लगे, लेकिन यहां कांग्रेस का सामना क्षेत्रीय दलों से होता रहा है। कर्नाटक और पंजाब में क्षेत्रीय दलों का वर्चस्व है, लेकिन यह दल किसी राष्ट्रीय दल से गठबंधन कर लेते हैं, जिससे मुकाबला द्विध्रुवीय ही रहता है। इसके अलावा उत्तर प्रदेश में मुकाबला चार कोणीय होता है - कांग्रेस, भाजपा, बसपा और सपा।
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