(क यहु तन जारौं मसि करौं, लिखौं राम का नाउँ।
लेखणि करूँ करंक की, लिखि-लिखि राम पठाऊँ
क)
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यहु तन जारौं मसि करौं, लिखौं राम का नाउँ।
लेखणि करूँ करंक की, लिखि-लिखि राम पठाऊँ ||
यह विरह का अंग – कबीर के दोहे है |
व्याख्या :
विरह का अंग दोहे में , कबीर जी कहते है , कि मैं अपने तन को जलाकर स्याही बनाना चाहती हूँ , अंत में कंकाल रह जाएगा और उससे अपनी लेखनी को तैयार कर लुंगी | अपनी लेखनी से , मैं अपने प्रेम की पाती लिख कर अपने राम भगवान को अपनी भक्ति को भेजती रहूँगी | इस तरह से वो हमेशा के लिए मेरे हो जाएँगे | इस तरह वह खुश हो कर मुझे अपने दर्शन देंगे |
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