कबीर घास न नीदिए, जो पाऊँ तलि होइ। उड़ि पडै जब आँखि मैं, खरी दुहेली होइ।।4।
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उड़ी पड़े जब आँखि मैं, खरी दुहेली हुई । प्रसंग :- इस दोहे में कवि ने घास के छोटे से तिनके का भी अपमान न करने की सलाह दी है। कबीरदास जी कहते हैं कि रास्ते में पड़ा हुआ घास का नन्हा सा टुकड़ा भी अपना विशेष अस्तित्व रखता है।
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