कबीर के अनुसार गुरु कुम्हार है तो शिष्य क्या है?
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गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़ि गढ़ि काढ़ै खोट।
अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट॥
भावार्थ : गुरु ही शिष्य के चरित्र का निर्माण करता है, गुरु के अभाव में शिष्य एक माटी का अनगढ़ टुकड़ा ही होता है जिसे गुरु एक घड़े का आकार देते हैं, उसके चरित्र का निर्माण करते हैं। जैसे कुम्भकार घड़ा बनाते वक़्त बाहर से तो चोट मारता है और अंदर से हलके हाथ से उसे सहारा भी देता हैं की कहीं कुम्भ टूट ना जाए, इसी भाँती गुरु भी उसके अवगुण को तो दूर करते हैं, उसके अवगुणों पर चोट करते हैं, लेकिन अंदर से उसे सहारा भी देते हैं, जिससे कहीं वह टूट ना जाए।
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कबीर के अनुसार गुरु कुम्हार है तो शिष्य क्या है?
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