कबीर के काव्य की विशेषताओं का वर्णन कीजिए 400 शब्दों में
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तथापि उन्होंने जो कहा वही कविता बन गई जिसके बल पर उन्हें जितनी ख्याति मिली उतनी विरले कवि को ही ख्याती प्राप्त होती है |
सर्वप्रथम कबीर ने रूढ़ियों, सामाजिक कुरितियों, तिर्थाटन, मूर्तिपूजा, नमाज, रोजादि का खुलकर विरोध किया | एक ओर उन्होंने हिन्दुओं को यह कहा है —
“ पाहन पूजै हरि मिलै तो मैं पूजूँ पहार |
ताते ये चक्की भली जो पीस खाय संसार || ”
तो दूसरी ओर मुसलमानों को कहा —
“ कंकड़ पत्थर जोरि कै मस्जिद दिया बनाय |
ता चढ़ मुल्लाबाग है क्या बहरा हुआ खुदाय || ”
इतना ही नहीं जो मुसलमान दिन भर रोजा रखता है और रात को गाय की हत्या करता है, उन्हें कबीर ने स्पष्ट कहा है —
“ दिन में रोजा रखत है रात हनत हैं गाय |
यह तो खून वो बन्दगी कैसे खुशी खुदाय || ”
उधर तीर्थाटन करने वाले को कहा है —
“ कस्तूरी कुण्डली बसै मृग ढढै बन माही | ”
कबीर को मान्यता है कि तीर्थ, व्रत, उपवासादि सब व्यर्थ है, क्योंकि इनके द्वारा ब्रह्म की प्राप्ती असंभव है |
उनके विचार से ब्रह्म का स्वरूप यह है —
“जाके मुँह माथा नहीं, नाहिं रूप कुरूप |
पुहुप बास थैं पातरा ऐसा तत्र अनूप ||”
यद्यपि ब्रह्म का वास फूल में सुगंध की भाँति है तथापि जीव अज्ञानान्धकार में भटकता है जबकि गीर ने स्पष्ट कहा है —
“तेरा साँई तुज्झ में क्यां पुहुपन में बास |
कस्तूरी की मिरग ज्यों फिर फिर ढूढैं बास ||”
वस्तुतः ईश्वर प्राप्ति कबीर के अनुसार आत्मज्ञान से ही संभव है तभी तो उन्होंने कहा कि —
“आत्मज्ञान बिना सब सूना ज्यों मथुरा क्या कासी |
घर में वसुंधरी नहि सृझै बाहर खोजन जासी ||”
कबीर ने ब्राह्य भेदों को व्यर्थ बताते हुए सबको एक ही परमात्मा की सन्तान बताया और सामान्य भावना का प्रतिपादन किया | तात्पर्यः कबीर ने प्रेम तत्व का समावेश ही नही किया वरन उसको अत्यधिक व्यापक बचा दिया | उनकी दृष्टी में भगवान के भक्ती का अधिकार सबको है