कबीर के काव्य में व्यक्त धार्मिक रूढ़ियों एवं धार अंधविश्वास पर तीखा प्रहार किया गया था सिद्ध कीजिए
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भक्ति काल में विविध प्रकार के स्वार्थी, लोभी, कामी लोग योगी-संन्यासी का वेष धारण किये उसे उदर पूर्ति का साधन बनाए घूमते दृष्टिगोचर होते थे। कबीर ने निर्भीक होकर उनके पाखंड पर प्रहार किया। सामाजिक क्षेत्र में व्याप्त मिथ्याचारों की धज्जियां उड़ा दीं। इस तीव्रालोचना में उन्होंने हिंदू-मुसलमान किसी को भी न बख्शा। एक न भूला दोह न भूला, भूला सब संसारा। एक न भूला दास कबीरा, जाके राम अधारा।।
मध्यकाल के तिमिराच्छन्न परिवेश में ज्ञान-दीप लेकर अवतरित होने वाले, भूली भटकी जनता के उचित पथ-प्रदर्शक एवं सम्बल प्रदान करने वाले कबीर क्रांतिदर्शी तथा आत्म-ज्ञानी संत थे। हृदय से नि:सृत भाव-विचार ही हृदय तक प्रेषित हो पाते हैं। यही कारण है उनकी वाणी के जन-ग्राह्य होने का।
बाह्य-जगत ने कबीर-काव्य को मुख्यत: दो धाराएं प्रदान कीं। प्रथम समाज की कुरीतियों और आडम्बरों पर तीव्र प्रहार, खंडन-मंडन द्वारा सत्य -तत्व का उद्घाटन एवं द्वितीय वह जिसकी खोज में सृष्टि का कण-कण आकुल-व्याकुल है। कबीर दास ने तत्कालीन धार्मिक पाखंड एवं कुरीतियों एवं पारस्परिक विरोध के उन्मूलन का स्तुत्य प्रयास किया है। उनकी सामाजिक प्रतिबद्धता ही कविता का रूप धारण कर लेती है। कबीर की कविता भक्त कवियों की विनयशीलता तथा आत्म-भर्त्सना के बीच धार्मिक और सामाजिक जीवन की पक्षपात रहित विवेचना है।
कबीर दास की प्रातिभ ज्योति, योग, तंत्र, भक्ति के आध्यात्मिक क्षेत्रों में ही नहीं, अपितु, मानव-जीवन के व्यावहारिक एवं सामाजिक क्षेत्रों में भी प्रकाशित हुई। उनकी गहन तीक्ष्ण दृष्टि ने धर्म, अध्यात्म एवं साधनों के गूढ़ तत्वों का सम्यक रीति से निरीक्षण किया, उन्हें अनुभूति का विषय बनाया, उनकी सूक्ष्म दृष्टि धर्म-साधना एवं लोक-व्यवहार के उन बाह्य रूपों पर भी पड़ी, जो अंधविश्वास, रूढ़ि एवं पाखंड से ग्रस्त थे। ऊंच-नीच, जाति-पांति के भेदों ने सामाजिक व्यवस्था की नींव ही हिला दी थी तथा हिंदू और मुसलमान मिथ्याभिमान में सत्य से दूर होते जा रहे थे। ऐसे समय में सुन्न समाधि लगाने वाले, 'उन्मन चढ़ा गगन रस पीवै' की स्थिति को प्राप्त फक्कड़ कबीर ने समाज के पाखंड, मिथ्या बाह्यचार एवं बुराइयों के विरूद्ध विद्रोह का निर्भीक स्वर ऊंचा किया और पुकार मचाई कि-
'जो कबीर धर जालै आपना, सो चलै हमारे साथ।'
कबीर का सामाजिक व्यक्तित्व, उनका सुधारक व्यक्तित्व एकान्त साधना द्वारा स्वयं का सुख भोगने तक सीमित नहीं था अपितु, 'सर्वे भवन्तु सुखिन:, सर्वे भवन्तु निरामया' की भांति प्राणि मात्र के दु:ख दूर करने में अपने जीवन की सार्थकता मानते हैं। सामाजिक वैषम्य एवं विसंगतियों का विरोध करते हुए समाज के कोप का भाजन बनते हैं। कबीर के व्यक्तित्व का यह सुधारक पक्ष-सामाजिक प्रतिबद्धता का पक्ष कुछ ऐसा ही विलक्षण है। व्यक्तिगत साधना का चरम आदर्श एवं सामाजिक चेतना की व्यापकता-दोनों का सुखद समन्वय कबीर की साधना का वैष्टिय है और यही विष्टिता उन्हें संत की कोटि में रखती है।
भक्ति काल में विविध प्रकार के स्वार्थी, लोभी, कामी लोग योगी-संन्यासी का वेष धारण किये उसे उदर पूर्ति का साधन बनाए घूमते दृष्टिगोचर होते थे। कबीर ने निर्भीक होकर उनके पाखंड पर प्रहार किया। सामाजिक क्षेत्र में व्याप्त मिथ्याचारों की धज्जियां उड़ा दीं। इस तीव्रालोचना में उन्होंने हिंदू-मुसलमान किसी को भी न बख्शा ।
एक न भूला दोह न भूला, भूला सब संसारा।
एक न भूला दास कबीरा, जाके राम अधारा।।
षट् कर्मों का जंजाल करते फिरो, मन मेंं विकार भरे हों तो इन सब आडम्बरों से क्या लाभ?
अरू भेले षट् दर्शन भाई। पाखंड भेस रहे लपटाई।।
पंडित भूले पढ़ि गुन्य वेदा। आप न पावे नानां भेदा।।
संध्या तरपन अरू षट् करमां। लागि रहे इनके आशरमां ।।
ब्राह्मणों ने जन्म के आधार पर ही, चाहे आचरण कितना ही निम्न क्यों न हो, अपनी श्रेष्ठता प्रतिपादित कर रखी थी। एक बिन्दु से निर्मित पंचतत्व युक्त मानव-शरीर सबका निर्माता एक ही ब्रह्म रूपी कुम्भकार, तो फिर जन्म के आधार पर यह भेद कैसा? इसीलिए उन्होंने ब्राह्मणों को ललकारा।
कबीर के काव्य में व्यक्त धार्मिक रूढ़ियों एवं धार अंधविश्वास पर तीखा प्रहार किया गया था सिद्ध कीजिए।
कबीर ने अपने काव्य के माध्यम से धार्मिक रूढ़ियों एवं धार्मिक अंधविश्वासों पर तीखा प्रहार किया है। कबीर ने अपने काव्य के माध्यम से अपने तत्कालीन समाज में व्याप्त धार्मिक रूढ़ियों और कुरीतियों पर तीखा व्यंग्य किया है।
एक दोहे में वह लिखते हैं कि
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ
पंडित भया न कोय
ढाई आखर प्रेम के
पढ़े सो पंडित होय
यानी तमाम धर्म ग्रंथ पढ़कर भी कोई ज्ञानी नहीं हो जाता। जिसने सबके प्रति प्रेम करना सीख लिया वही सच्चा ज्ञानी है।
एक दोहे में लिखते हैं कि
कांकर पत्थर जोड़ कर मस्जिद लिए बनाए
तापे मुल्ला बांग क्या बहरा हुआ खुदाय
यानि कंकर पत्थर जोड़ कर मस्जिद तो बना ली लेकिन उस पर चिल्ला चिल्ला कर ईश्वर को याद करने से ऐसा लगता है कि जैसे ईश्वर बहरा हो गया है, उसे चिल्ला चिल्ला कर पुकारना पड़ रहा है।
कबीर के कहने का भाव यह है कि ईश्वर को पुकारने के लिए हृदय की आवाज चाहिए। चिल्ला चिल्ला कर बोलना नहीं।
इसी तरह कबीर ने अपने और दोहों के माध्यम से तत्कालीन मध्ययुगीन समाज में व्याप्त कुरीतियों पर करारा एवं तीखा व्यंग्य किया है।
उन्होंने हिंदू एवं मुस्लिम दोनों धर्म में व्याप्त कुरीतियों पर समान रूप से व्यंग्य किया है।