कबीर की उलटबांसी रचनाओं का क्या तात्पर्य है कोई तीन उदाहरण के साथ स्पष्ट कीजिए
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कबीर की उलटबांसी रचनाओं से तात्पर्य कबीर की उन रचनाओं से है, जिनके माध्यम से कबीर ने अपनी बात को घुमा-फिरा कर और प्रचलित अर्थ से एकदम विपरीत अर्थ में अपनी बात कही है। कबीर की उलटबांसी को समझ हर किसी के लिये आसान नही होता क्योंकि इन रचनाओं के माध्यम से कबीर ने अपनी बात को काफी घुमा-फिरा कर कहा है, जिससे पाठक इसके प्रचलित अर्थ में ही उलझा रह जाता है, जबकि कबीर का कहने का तात्पर्य इसका विपरीट यानि उलटा कहने का रहा है। इसीलिये इन रचनाओं को ‘उलटबांसी’ कहा जाता है।
उदाहरण के लिये...
देखि-देखि जिय अचरज होई
यह पद बूझें बिरला कोई
धरती उलटि अकासै जाय,
चिउंटी के मुख हस्ति समाय
बिना पवन सो पर्वत उड़े,
जीव जन्तु सब वृक्षा चढ़े
सूखे-सरवर उठे हिलोरा,
बिनु-जल चकवा करत किलोरा।
अर्थात धरती उलटकर आकाश को ओर चल दी, हाथी चींटी के मुँह में समा गया, पहाड़ बिना हवा के ही उड़ने लगा, सारे जीव जन्तु सब वृक्ष पर चढ़ने लगे। सूखे सरोवर में हिलोरें उठने लगीं और चकवा बिना पानी के ही कलोल करने लगा।
कबीर ने इस उलटबांसी के माध्यम से किसी योगी की आंतरिक और बाह्य स्थिति का वर्णन किया है। यानि जब संत-योगी जागता है तो संसार सोता है, जब संत-योगी सोता है, तो संसार जागता है।
कबीर का कहने का तात्पर्य ये है कि इस भौतिक जगत के जो कर्म-व्यवहार है, वो आध्यात्मिक जीवन में एकदम उलटे हो जाते हैं। यानि धरती आकाश बन जाती है, हाथी के मुँह में चींटी की जगह चींटी के मुँह में हाथी चला जाता है, जो पहाड़ हवा से उड़ता है वो बिन हवा के ही उड़ने लगता है, जीव-जन्तु जो भूमि पर विचरण करते हैं, वो वृक्षों पर चढने लगते हैं, पानी से भले सरोवर में ही हिलोरे उठती है, लेकिन यहाँ सूखे सरोवर में उठने लगती हैं और चकवा जो जल को देखकर कलोल करता है, वो बिना जल के ही कलोल करने लगता है, यानि सब काम उल्टे होने लगते हैं।
भौतिक जगत और आध्यात्मिक जगत में यही अंतर है, जो कबीर अपनी इस उलटबांसी के माध्यम से कहा है।
एक अन्य उदाहरण...
एकै कुँवा पंच पनिहारी
एकै लेजु भरै नौ नारी
फटि गया कुँआ विनसि गई बारी
विलग गई पाँचों पनिहारी।
एक कुएँ पर नौ पनिहारी पहुँचीं।
अर्थात रस्सी तो एक थी लेकिन नौ स्त्रियाँ पानी भर रही थीं। अचानक कुँआ फट गया और बारी का खेत नष्ट हो गया। पाँचों पनिहारी यानि पानी भरने वाली स्त्रियाँ अलग-अलग दिशा में चली गईं।
कबीर का कहने का तात्पर्य है कि अन्तःकरण रूपी कुयें के समान है। इसमें पाँच पनिहारी रूपी पाँच इन्द्रियाँ कुत्सित विचारों और कलुषित मन की तरह पानी भरती हैं। जब आत्मा का परमात्मा के प्रति समर्पित हो जाती है, मोह-माया से ग्रस्त अन्तःकरण फट जाता है, और पाँच इन्द्रियों रूपी पनिहारिनों ने अपने कुत्सित और कलुषित विचारों की क्यारी उगाई हुई थी, वो सब पूरा खेत नष्ट हो जाता है, और पाँचो इन्द्रिय रूपी पनिहारिनें पाँच तत्वों में बदल कर अलग अलग चली जाती हैं, अर्थात आत्मा को मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है।
इस तरह कबीर ने अपनी उलटबाँसियों के माध्यम से सामान्य अर्थ से अलग हटकर बेहद गूढ़ और ज्ञान भरी बात कहने का प्रयास किया है।
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