Hindi, asked by deepakshi27, 8 months ago

कबीर ने व्यक्ति की आत्मा की तुलना किससे की है​

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Answered by Anonymous
1

कृपया दोहा लिखें।.......

Answered by unknon51
2

Answer:

गुरु’ शब्द अध्यात्म परंपरा की खोज है। सांप्रदायिक धारणाओं में आचार्य-उपाध्याय-अध्यापक-शिक्षक जैसे शब्द मिलेंगे लेकिन ‘गुरु’ का शिक्षा से कोई संबंध नहीं है। गुरु शिक्षक नहीं है। वह ज्ञान देता नहीं परंतु तुम्हारा अज्ञान गिराता है। वह तुम्हें शास्त्रों का जानकार नहीं बनाता परंतु स्वयं को जानने के ढंग उजागर करता है। गुरु तुम्हें कर्म-काण्ड से भरता नहीं परंतु राग-द्वेष-अहंकार से आज़ाद करता है।

संत कबीर का यह अनमोल सूत्र समय और संप्रदाय की धारणाओं के बीच अपने मौलिक अर्थ को खो चुका है। कबीर ने प्रथम पंक्ति में प्रश्न उठाया है कि गुरु और गोविन्द (ईश्वर) दोनों यदि सामने खड़े हैं तो किसको पहले नमन करूँ? किसके चरण का स्पर्श पहले करूँ? अंध-अनुकरण करती गुरु-परंपरा अर्थ निकालती है कि गुरु और गोविन्द के बीच, गुरु को ही पहला नमन होना चाहिए लेकिन इस सूत्र में गुरु के लिए बलिहारी शब्द का उपयोग हुआ है जिसका अर्थ होता है ‘न्यौछावर’ होना, बलिदान देना।

बलिहारी गुरु आपने

गुरु का कार्य है — शिष्य के अज्ञान व अहंकार का नाश करना। गुरु की मौज़ूदगी में जगत पर पड़ा माया का पर्दा उघडता जाता है और जगदीश (गोविन्द) की व्यापकता का एहसास प्रगाढ़ होने लगता है। ऐसे श्री गुरु की उपस्थिति तभी अपना प्रभाव शिष्य पर छोड़ती है जब शिष्य अपने आग्रह, अपनी मान्यताओं, अपनी सांसारिक आसक्तियों का बलिदान दे और अपने प्रेम-श्रद्धा-अर्पणता को श्री गुरु के प्रति न्यौछावर करे। श्री गुरु के अनुपम व्यक्तित्व में रही गोविन्द की झलक एक तरफ शिष्य में प्रेम-श्रद्धा-अर्पणता का भाव उठाता है तो दूसरी ओर इसी के परिणामस्वरूप तुच्छ आग्रह, मान्यताएँ और आसक्तियाँ स्वयं ही टूटती है। इस प्रकार श्री गुरु की प्रत्यक्ष उपस्थिति में स्वतः ही अज्ञान की बलि चढ़ती है।

जिन गोविन्द दियो बताय

प्रश्न था संत कबीर का कि गुरु और ईश्वर दोनों पर एक ही समय में दृष्टि पड़े तो पहले किसको नमन हो?

जब श्री गुरु की प्रत्यक्ष उपस्थिति में शिष्य के भीतर रहा जन्मोजन्म का अज्ञान टलता है तब उसे गोविन्द (ईश्वर) का वास्तविक स्वरुप समझ में आता है। शास्त्रों से समझा हुआ ईश्वर का स्वरुप बड़ा ही सांप्रदायिक होता है। हिन्दू शास्त्र ईश्वर को राम या कृष्ण कहेंगे। जैन शास्त्र ईश्वर और भगवान को समान कह कर तीर्थंकरों की महिमा करेंगे तो कोई अल्लाह को ही ईश्वर कहेगा। शिव-भक्त, शिव के स्वरुप को ईश्वर कहेंगे। परंतु श्री गुरु संप्रदाय से ऊपर उठकर ईश्वर के वास्तविक स्वरुप की पहचान कराते हैं। ईश्वर का विराट स्वरुप यदि बौद्धिक स्तर पर भी समझ में आ जाए तो सांप्रदायिक भेद भाव गिर जाए। यही स्वरुप यदि अनुभूति के स्तर पर उतर आए तो सभी प्रश्नों का समाधान हो जाए।

सब ईश्वर में, सब में ईश्वर!

अध्यात्म की संपूर्ण यात्रा ही है — ईश्वर के अनुभव की। फिर चाहे उस ईश्वर को आत्मा कहो, ब्रह्म कहो, चैतन्य कहो या परमात्मा कहो। श्री गुरु के निकट समागम में जैसे- जैसे स्वयं का अज्ञान व अहंकार टूटने लगता है तो ईश्वर का स्वरुप, स्वयं का स्वरुप उजागर होने लगता है। श्री गुरु शब्द से आरंभ करके मौन में शिष्य को उतारते हैं -एक ऐसा आंतरिक मौन जहाँ संकल्प-विकल्प का जाल नहीं होता, राग-द्वेष का तूफ़ान नहीं होता और प्रश्न व संशय का कांटा नहीं होता। इसी आंतरिक मौन में जैसे-जैसे स्वरुप उघड़ता है तो अनुभव होता है कि यहाँ दो [(द्वैत) तो है ही नहीं। जो कुछ है सब एक ही है। अज्ञान के कारण दो अलग-अलग दिखते हैं- परमात्मा अलग और पदार्थ अलग, सुख अलग और दुःख अलग, जीवन अलग और मृत्यु अलग। परंतु अज्ञान टूटते ही सब कुछ एक हो जाता है; द्वैत की भ्रांति टूटते ही अद्वैत का समग्र साम्राज्य अनुभव में आता है तब मात्र यही अनुभव रहता है कि यह सब कुछ ईश्वर में चल रहा है अथवा जो सब चल रहा है जगत के रंगमंच पर — वह सब ईश्वर ही है।

अज्ञान के कारण दो अलग-अलग दिखते हैं- परमात्मा अलग और पदार्थ अलग, सुख अलग और दुःख अलग, जीवन अलग और मृत्यु अलग। परंतु अज्ञान टूटते ही सब कुछ एक हो जाता है

काको लागूं पाए ?

अब, जब दो रहे ही नहीं तो किसको पहले नमन करूँ और किसे बाद में? सब कुछ जब ईश्वर में है, ईश्वर ही है और ईश्वर का ही है तो फिर गुरु भी ईश्वर में ही है, ईश्वर ही है और ईश्वर का ही है ! यहाँ अब जो भी नमन होता है, प्रणाम होता है वह मात्र उस एक अद्वैत ईश्वर को ही हो सकता है, अन्य किसी को नहीं। अब पहले या बाद में, आगे या पीछे का प्रश्न ही नहीं है क्योंकि समग्र स्वरुप ही ईश्वरीय है! और अध्यात्म-यात्रा में अभी भी जिसे यह प्रश्न है कि गुरु और गोविन्द में से पहले किसको नमन करें उसने अध्यात्म मार्ग में अभी यात्रा आरंभ ही नहीं करी। संप्रदाय की संकुचित मान्यताओं, तस्वीरों, प्रतिमाओं और क्रिया-कांडों में से ईश्वर का स्वरुप नहीं समझा जाता अपितु श्री गुरु के प्रत्यक्ष समागम में अज्ञान व अहंकार को न्यौछावर कर के उस विराट में हम प्रवेश करते हैं जहाँ संशय का तूफ़ान थमता है और समाधि का समाधान संपूर्ण अस्तित्व को घेर लेता है।

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