कबीरजी की दृष्टि से साधु कैसा होना चाहिए?
Answers
संत कबीर ने अपने एक दोहे में कहा है साधु ऐसा चाहिए जैसे सूप सुभाय सार सार को गही रहे थोथा देई उदाय। इसका अर्थ होता है संत या साधु को सूप के समान होना चाहिए जैसे सूप अनाज के कचरे को अनाज से अलग कर देता है उसी प्रकार संत को अच्छी बातें ग्रहण करनी चाहिए और बुरी बातों को अपने अंदर से निकाल देना चाहिए।
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Answer:
कबीर साहब कहते हैं कि अपना तन-मन उस गुरु को सौंपना चाहिए जिसमें विषय-वासनाओं के प्रति आकर्षण न हो और जो शिष्य के अहंकार को दूर करके ईश्वर की ओर लगा दे।
जाका गुरु भी अंधला, चेरा खरा निरंध
अंधै अंधा ठेलिया, दून्यूं कूप पडंत।।
जिसका गुरु भी अंधा है अर्थात अज्ञानी है और चेला सर्वथा अंध भक्त है। तब अंधा अंधे को ठेलता है अर्थात एक अज्ञानी दूसरे अज्ञानी को धकेलता है, दोनों ही अज्ञान एवं विषय-वासना के अंधेरे कुएं में गिर जाते और खत्म हो जाते हैं।
Explanation:
बिन देखे वह देस की, बात कहै सो कूर।
आपै खारी खात हैं, बेचत फिरत कपूर।।
परमात्मा के देश को देखे बिना जो उस देश की बातें करता है, वह झूठा है। ऐसा व्यक्ति स्वयं तो खारा (कड़वा) खाता है और दूसरों को कपूर बेचता फिरता है अर्थात स्वयं तो परम पद को जानता नहीं है और दूसरों को उपदेश देता फिरता है।
साधु भया तौ का भया, बूझा नहीं विवेक।
छापा तिलक बनाइ करि, दगध्या लोक अनेक।।
हे मनुष्य, वैष्णव या शैव मत में दीक्षित होने मात्र से क्या लाभ, यदि तुम्हारे भीतर विवेक जागृत नहीं हैं? चिह्न छापा और तिलक धारण करके भी यदि अनेक लोगों को ठगते रहे अथवा अनेक लोगों में विषयों की ज्वाला में जलते रहे तो क्या लाभ?
पंडित और मसालची, दोनों सूझे नाहिं।
औरन को कर चांदना, आप अंधेरे माहिं।।
पंडित और मशाल वाले दोनों को ही परमात्मा विषयक वास्तविक ज्ञान नहीं है। दूसरों को उपदेश देते फिरते हैं और स्वयं अज्ञान के अंधकार में डूबे हुए हैं।
फूटी आंखि विवेक की, लखै न संत असंत।
जाके संग दस बीस हैं, ताका नाम महंत।।
जब विवेकयुक्त दृष्टि नहीं रह जाती है तो व्यक्ति साधु और ढोंगी में अंतर नहीं कर पाता। जो दस-बीस शिष्यों को अपने साथ लगा लेता है, वही महंत कहलाने लगता है।