कबीरदास जी बाहरी आडम्बरो का विरोध करते हुए धर्म पर कटाक्ष
किया है वर्णन करे।
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15 जून को संत कबीर दास की जयंती पर विशेष)
संत कबीर दास हिंदी साहित्य के आदिकाल के इकलौते ऐसे कवि हैं, जो आजीवन समाज और लोगों के बीच व्याप्त आडंबरों पर कुठाराघात करते रहे. वह कर्म प्रधान समाज के पैरोकार थे और इसकी झलक उनकी रचनाओं में साफ झलकती है.
मौजूदा समय के कवि-साहित्यकार भी इससे पूरा इत्तेफाक रखते हैं. कवि प्रेम जनमेजय ने कहा, ‘कबीर दास आस्था के विरोधी नहीं थे, लेकिन वह निराकार ईश्वर को स्वीकार करते थे. वह धर्म और परंपराओं के नाम पर किये जाने वाले आडंबरों से सहमत नहीं थे.’
कबीर के जन्म को लेकर किसी स्पष्ट तिथि का पता नहीं, लेकिन माना जाता है कि उनका जन्म 15 जून, 1440 को वाराणसी में हुआ. नीरू और नीमा नामक मुस्लिम दंपत्ति ने उन्हें पाया था और उन्हें कबीर नाम दिया. शुरुआत में कबीर ने बुनकरी के पारिवारिक पेशे में मन लगाया, लेकिन बाद में उनका ध्यान साधुवाद की ओर बढ़ता चला गया.
वाराणसी के संत रमानंद के शिष्य बनने के बाद वह बतौर संत स्थापित हुए. उनकी धार्मिक मान्यता को लेकर लंबे समय तक मतभेद बना रहा. कुछ लोग उन्हें जन्म से हिंदू करार देते हैं तो कइयों का मानना है कि साधुवाद की ओर उनका रुझान संत रमानंद से मिलने के बाद हुआ. माना जाता है कि कबीर ने 1518 में नश्वर शरीर छोड़ दिया.
कबीर ने मुसलमान और हिंदू दोनों समुदाय के बीच आडंबरों पर कटाक्ष किया. उन्होंने हमेशा निराकार ईश्वर की उपासना की पैरवी की. इसी सदंर्भ में उनका एक दोहा काफी प्रचलित है- ‘पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पूजै पहार .