Hindi, asked by rajdeep81, 5 months ago

कबीरदास का जीवन परिचय​

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Answered by aryatripathi47
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संत कबीरदास का जन्म के सम्बन्ध में कोई निश्चित मत प्रकट नहीं किया जा सकता ! प्रमाणित साक्ष्य उपलब्ध न होने के कारण इनके जन्म के सम्बन्ध में अनेक जनत्रुटियों एवं किवन्दतिया प्रचलित है कबीरदास जी का जन्म सम्वत 1455 वि०(1938 ई०) में ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष पूर्णिमा को सोमवार के दिन माना जाता है,इनके जन्म – स्थान के सम्बन्ध में तीन मत है –– काशी,मगहर और आजमग़ढ ! अनेक प्रमाणों के आधार पर इनका जन्म स्थान काशी मानना ही उचित है !

भक्त –परम्परा में प्रसिद् है कि एक विधवा ब्राह्मणी को स्वामी रामानंद के आशीर्वाद से पुत्र उत्पन्न होने पर उसने समाज के भय से काशी के समीप लहरतारा (लहर तालाब) के पास फेक दिया जिससे ये तालाब के किनारे पड़े हुए थे, जहाँ इन्हें नीरू एवं नीमा नामक दो जुलाहा दम्पति इन्हें पा जाते है और इन्हें अपने घर ले जा कर इनका पालन पोषण करते है और इस प्रकार इनका बचपन हिन्दू एवं मुस्लिम दोनों प्रकार के धर्मो के मध्य हुआ अतः इन्होने दोनों धर्मो के लोगो के मध्य में अपना सम्बन्ध स्थापित किया जिससे सभी धर्मो के लोगों के लिए प्रिय बन गये, विवाह योग्य होने पर इनका विवाह “लोई” नामक स्त्री से हो जाता है लोई से इनकी दो संताने कमाल एवं कमाली थे !

कबीरदास अपने युग के सबसे महान समाज सुधार तथा प्रभावशाली व्यक्ति थे इन्हें समाज की अनेक प्रकार की बुराइयों का सामना करना पड़ा ये वाह्य आडम्बर पूजा पाठ कर्मकांड के अपेक्षा पवित्र नैतिक और सादे जीवन को अधिक महत्व देते थे !

समाज में व्याप्त विभिन्न प्रकार की कुरीतियों के कारण ही इन्होंने अपनी रचनाओं में हिन्दू एवं मुसलमान दोनों के पक्ष में प्रस्तुतिकरण किया !

कबीरदास के गुरु स्वामी रामानन्द जी थे और इन्ही के अधीन इन्होंने दिक्षा प्राप्त की ! कबीर पंथ में इनके मृत्यु का समय संवत 1575 विक्रम माघ शुक्लपक्ष एकादशी (1518 ई०) को माना गया है कहा जाता है की इनके मृत्यु के उपरान्त इनका अंतिम संस्कार करने के लिए हिन्दू एवं मुस्लिम दोनों सम्प्रदाय के लोग अपने-अपने विधि के माध्यम से करने के लिए आपस में झगड़ने लगे ! किन्तु ईश्वर शक्ति के द्वारा कबीर का शरीर पूर्ण रूप से पुष्प में परिवर्तित हो जाता है जिससे दोनों धर्मो के लोग अपने-अपने विधि से उनका अंतिम संस्कार करते है !

साहित्यिक परिचय –

कबीरदास जी का सम्पूर्ण जीवन समाज की सेवा एवं भक्ति भजन में व्यतीत हुआ आज भी वाराणसी में कबीरदास की विभिन्न प्रकार की स्मृतियाँ देखने को मिलती है ये अपने मन की अनुभूतियों को इन्होने स्वयं अपनी रचनायें को लिपिबध्य नहीं किया ! अपने मन की अनुभूतियों को इन्होनें स्वाभाविक रूप से अपनी “साखी” में व्यक्त किया है ! अनपढ़ होते हुए भी कबीर ने जो वाक्य –सामग्री प्रस्तुत की, वह अत्यंत विस्मयकारी है ! ये अपनी रचनाओं में इन्होने “मंदिर”, “तीर्थाटन”, “माला,नमाज”,”पूजा-पाठ” आदि धर्म के बाहरी आचार – व्यवहार तथा कर्मकाण्ड की कठोर शब्दों में निंदा की और “सत्य”, ”प्रेम”, “पवित्रता”, “सत्संग”, “इन्द्रीय-निग्रह”, “सदाचार”, “गुरु-महिमा”, “ईश्वर-भक्ति” आदि पर विशेष बल दिया है

रचनायें ––

कबीर जी पढ़े लिखे नहीं थे, इन्होने स्वयं स्वीकार किया है! –– ”मसि कागद छुओ नहीं, कलम गही नहिं हाथ” यदपि कबीर की प्रामिकता रचनाओं और इनके शुद्ध पाठ का पता लगाना कठिन कार्य है, फिर भी इतना स्पष्ट है कि ये जो कुछ गा उठते थे, इनके शिष्य उसे लिख लिया करते थे !

कबीर से शिष्य धर्मदास ने इनकी रचनाओं का “बीजक” नामक से संग्रह किया है , जिसके तीन भाग है –– “साखी”, “सबद”, “रमैना”

साखी ––

यह साखी शब्द संस्कृत के “साक्षी” का विकृत रूप है और “धर्मोपदेश” के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है यह दोहा छद्र में लिखा गया है !

सबद ––

यह गेय पद है जिसमें पूरी संगीतात्मक विघमान है ! इसमें उपदेशात्मकता के स्थान पर भावावेश की प्रधानता है, क्योकि कबीर के प्रेम और अन्तरण साधना की अभिव्यक्ति हुई है !

रमैना ––

यह चौपाई एव दोहा छंद में रचित है ! इसमे कबीर के रहस्यवादी और दार्शनिक विचारो को प्रकट किया है

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rajdeep81: thanks a lot
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