Hindi, asked by agrawalshreya0003, 3 months ago

कबीरदास के दोहों में धार्मिक आडम्बरी का विरोध मिलता है। इस
का क्या कारण हे कबीर की समकालीन परिस्थितियों का परिचय देते
हुए पाठयेत्तर कोई दस कबीर कृत दोहे लिखिए जो आज भी प्रासंगिक
।उनसे मिलने वाली शिक्षा भी लिखिए।
please answer this.​

Answers

Answered by anitakeshari349
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Answer:

सिवनी. संत कबीर दासजी ने वर्षों पहले जीवन जीने के जो रूल अपने दोहों के जरिए बताए, वो आज के जमाने में भी उतने ही कारगर हैं, जितने उस वक्त थे। इन दोहों को अगर हम अपनी व्यस्ततम जीवन शैली में उतारें तो बस लाभ ही लाभ है। उक्ताशय की बात प्रवचनकर्ता पंथश्री सुरेश प्रकाश ने किंदरई में जारी कबीर महापुराण में श्रद्धालुजनों से कही।

समाज सुधारक संत कबीरदास के चरित्र का वर्णन करते हुए बताया कि इन्होंने जातिवाद एवं छूआछूत का तथा धर्म से संबंधित आडंबरों का भी विरोध किया।

श्रीसद्गुरु कबीर साहेब सेवा समिति पौड़ी के तत्वावधान में चल रही कबीर महापुराण में उन्होंने आगे कहा कि धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय, माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय। इसका अर्थ है हर काम के परिणाम के लिए हमें धैर्य रखना चाहिए। कर्म करने के बाद परिणाम के लिए उतावलापन जरूरी नहीं है। जैसे एक माली पेड़ को सौ घड़े पानी एक साथ दे तब भी पेड़ पर फल तो मौसम आने पर ही लगेंगे। वैसे ही हमें हमारे प्रयासों, कार्यों का रिजल्ट वक्त आने पर मिलेगा। इसी प्रकार पोथी पढि़ पढि़ जग मुआ, पंडित भया न कोय, ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय। इसके भावार्थ में बताया कि मोटी-मोटी पुस्तकें पढ़कर संसार में कितने ही लोग मृत्यु के द्वार पहुंच गए, लेकिन वे सभी विद्धान नहीं बन सके। कबीर मानते हैं कि यदि कोई प्रेम के ढाई अक्षर ही अच्छी तरह पढ़ लें या प्यार के वास्तविक रूप पहचान ले तो वहीं सच्चा ज्ञानी है। यह प्रेम सिर्फ प्रिय व्यक्ति से नहीं बल्कि आस-पास के सभी चराचर जीवों से हैं। प्रफेशनल लाइफ में कहिए तो टीम भावना।

Answered by yoyopaaji12
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Answer:

कबीर जी के दोहे :

कबीर जी के दोहे आज तक ज्ञान देते है| हम आज तक कबीर के सिद्धांतों और शिक्षाओं को अपने जीवन शैली का आधार मानते हैं | कबीर जी  ने रूढ़ियों, सामाजिक कुरितियों, तिर्थाटन, मूर्तिपूजा, नमाज, रोजादि का खुलकर विरोध किया |

कबीर का दोहा बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर |

पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर ||

खजूर के पेड़ के भाँति बड़े होने का कोई फायदा नहीं है, क्योंकि इससे न तो यात्रियों को छाया मिलती है, न इसके फल आसानी से तोड़े जा सकते हैं | आर्थात बड़प्पन के प्रदर्शन मात्र से किसी का लाभ नहीं होता ।

ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोये |

औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए ||

हमें ऐसी मधुर वाणी बोलनी चाहिए जिससे हमें शीतलता का अनुभव हो और साथ ही सुनने वाले  का मन भी प्रसन्न हो उठे।  हमें कड़वे  वचन नहीं बोलने चाहिए | हमेशा सबसे प्यार से और हंस के बात करनी चाहिए | खुद को भी सुख की अनुभूति होती है।

तिनका कबहुँ ना निंदये, जो पाँव तले होय।

कबहुँ उड़ अंखियन पड़े, पीर घनेरी होए॥

कबीर कहते हैं कि एक हमें अपने जीवन में छोटे से तिनके की भी कभी निंदा नहीं करनी चाहिए , हब यही तिनका हमारे  पांवों के नीचे दब जाता है , यदि कभी वह तिनका उड़कर आँख में आ गिर जाता है  तो बहुत  गहरी पीड़ा होती है | इसी हमें हमेशा किसी को छोटा नहीं समझना चाहिए |

जो कोई करै सो स्वार्थी, अरस परस गुन देत

बिन किये करै सो सूरमा, परमारथ के हेत।

कबीर जी कहते है , जो अपने हेतु किए  गए के बदले में कुछ करता है वह स्वार्थी है। जो किसी के किए  गए  उपकार के बिना किसी का उपकार करता है। वह परमार्थ के लिये करता है। हमें हमेशा सब की मदद करनी चाहिए | और बदले की भावना नहीं रहनी चाहिए |

सुख के संगी स्वार्थी, दुख मे रहते दूर

कहे कबीर परमारथी, दुख सुख सदा हजूर।

कबीर जी कहते है , स्वार्थी व्यक्ति सुख का साथी होता है। वह दुख के समय दूर ही रहते है। कबीर कहते हैं कि एक परमार्थी सर्वदा सुख-दुख में साथ निभाते है। परोपकारी मनुष्य सर्वदा सुख-दुख में साथ निभाते है।

दुःख में सुमिरन सब करे सुख में करै न कोय।

जो सुख में सुमिरन करे दुःख काहे को होय ॥

कबीर दास जी कहते हैं कि दुःख के समय सभी भगवान् को याद करते हैं पर सुख में कोई नहीं करता। यदि सुख में भी भगवान् को याद किया जाए तो दुःख हो ही क्यों ?  जब मनुष्य बहुत दुखी होता ये बहुत परेशान होता है तब वह भगवान् को बहुत याद करता है , भगवान सब ठीक कर दो | लेकिन जब इंसान सुख में होता तब उसे कोई याद नहीं करता  तब सब कुछ भूल जाता है |

माया मुई न मन मुआ , मरी मरी गया सरीर।

आशा – तृष्णा ना मरी , कह गए संत कबीर। ।

कबीर जी कहते है कि लोग सांसारिक सुख और आशा तृष्णा में रहकर फंस कर रह गए है ।  उसी माया की चाह के लिए उसकी प्राप्ति के लिए दिन – रात जतन करते रहते है।

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ , पंडित भया न कोय ,

ढाई आखर प्रेम का , पढ़े सो पंडित होय। ।

कबीर जी कहते है कि किताब और पोथी पत्रा पढ़ने से कोई पंडित अथवा विद्वान नहीं हो जाता। पंडित वही होता है , जिस में वह स्वभाव में विद्वता आता जो एक विद्वान में आना चाहिए। को व्यक्ति प्रेम के साथ रहता है |

माला फेरत जुग भया , फिरा न मन का फेर।

करका मनका डार दे , मन का मनका फेर। ।

कबीर जी कहते है , माला फेरते – फिरते युग बीत जाता है , फिर भी मन में वह शांति नहीं मिलती अभी जो एक प्राणी में होना चाहिए। इसलिए वह कहते हैं कि यह सब मनके के  मालाएं व्यर्थ है।  इन सबको छोड़ देना चाहिए , यह सब मन का , मन का फेर है | सच्चे मन से ईश्वर की भक्ति करनी चाहिए |

पाहन पूजे हरि मिले , तो मैं पूजूं पहार

याते चाकी भली जो पीस खाए संसार। ।

कबीर जी कहते है कि , मनुष्य को  व्यर्थ के कर्मकांडनहीं करने चाहिए |  ईश्वर हमारे  हृदय में वास करते है , मनुष्य को अपने हृदय में हरि को ढूंढना चाहिए , ना की विभिन्न प्रकार के आडंबर और कर्मकांड करके हरि को ढूंढना चाहिए।

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