Kabir das ji ka jeevan parichay
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Kabir ke janm aur mritu ke bare me anek kinvtantiyan pracalit hain.kaha jata hai ki San 1398 me Kashi me unka janm hua hai aur San 1518 ke aspas maghar me dehant ho gaya. Kabir ne vidhivat sikcha nahi payi thi parantu satsang, paryatan tatha anubhav se unhone Gyan prapt Kiya tha
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✯कबीर✯
✯जीवन - परिचय: कबीर का जन्म 1398 ई। 15 वाराणसी में हुआ और मृत्यु 1518 ई। में मघर में। उनके बारे में कई किंवदंतियाँ मिलती हैं उन्हें नीरू और नीमा ने जुलाहा - दंपति ने पाला - पोसा कहा। कबीर पढ़े लिखे नहीं थे किंतु उनका ज्ञान और अनुभव अपार था। कबीर के समय भारतीय समाज में कई अंध विश्वास और धार्मिक आडंबर रूढ़ थे। हिंदू - मुसलमानों के विश्वासों और मान्यताओं में समानता बढ़ रही है। समाज कठिन परिवर्तन के दौर से गुजर रहा था। कबीर ने ऐसे आडंबरों और कुरीतियों का विरोध किया और उन पर तीखा प्रहार किया। कबीर का विश्वास था कि प्रेमपूर्ण भक्ति से ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है, दिखावे से नहीं।
✯कबीर की प्रमुख रचनाएँ: कबीरदास की सभी रचनाएँ 'कबीर ग्रंथावली' में संगृहीत हैं। उनका मुख्य ग्रंथालय 'बीजक' है। कबीर का काव्य साही, सबद, रतनी के माध्यम से जाना जाता है। उनकी कुछ रचनाएँ सिक्कों के धर्म - ग्रन्थ 'गुरु ग्रन्थ साहिब' में भी संकलित हैं।
✯साहित्यिक विशेषताएँ: कबीर ने दोहा - चौपाई और पद शैली का प्रायः प्रयोग किया है। साड़ियों की भाषा राजस्थानी या पंजाबी मिश्रित हिंदी है। 'रतनी' और 'सबद' की भाषा पूरबी हिंदी के करीब है। रामचंद्र शुक्ल ने उनकी भाषा को सधु ककड़ी कहा है। कबीर की भाषा में उनके स्वभाव से फक्कड़पन, मस्तमुलानापन, स्वच्छगोई और निर्भीकता के दर्शन होते हैं |
✯भाषा - शैली: कबीरदास ने सामान्य बोल - चाल की भाषा को अपनाया है। संपत के तत्सम तद्भव शब्दों के साथ कई स्थानीय बोलियों के शब्द उनकी भाषा में सहज रूप से आ गए हैं। उनकी पंजाबी, राजस्थानी, ब्रज, पूरबी भाषाओं के शब्दों से मिली - जुली भाषा को 'सधुक्कड़ी भाषा' कहा गया है। कुछ विद्वान उसे 'खिचड़ी भाषा' भी कहते हैं। कबीर की भाषा - शैली के माध्यम से उनका व्यक्तित्व स्पष्ट झलकता है। भाषा चाहे कितनी ही ऊँट - खाबड रही हो, वह समन से सक्षम भाव की भी अभिव्यक्ति करने में मश उनकी भाषा - शैली की विशेषता के कारण उन्हें युग का क्रांतिकारी कवि भी कहा गया है।