Hindi, asked by aryangiri8339, 1 year ago

Kabir sant hi nahi samaj sudharak bhi the' ess vishay par apne vichar likhiye.

Answers

Answered by khushi1513
147
भारतीय संस्कृति में संतों की महिमा अद्भुत है। समाज के गुरु ईश्वर तुल्य होते हैं। समाज में व्याप्त बुराई, अराजकता और अशांति को संत ही हमेशा से नियंत्रित करते रहे हैं। कबीरदास एक निर्भीक समाज सुधारक थे। उनके विचार आज भी समाज के लिए प्रासंगिक हैं। धर्म के ऊपर मानवता को स्थापित किया है।

उन्होंने भेदभाव को भुलाकर हमेशा भाईचारे के साथ रहने की सीख दी है। सामाजिक विषमता को दूर करना ही उनकी पहली प्राथमिकता थी। उनकी जयंती पर उनके आदर्शों को जीवन में आत्मसात करना ही इस आयोजन को सार्थक बनाएगा।

प्रातः बेला में मैंने परम वंदनीय कबीर दास का स्मरण किया, कमरे में टंगे चित्र पर श्रद्धा सुमन अर्पित किए और चल पड़ा गंगा नहाने। कंधे पर अंगोछा देख हमारे पड़ोसी मेहरा चौंके - 'का बात है बौरा गए हो का, ई सुबह-सुबह कहां चल दिए।' मैं मुस्कराया और बोला, 'मेहरा जी राम-राम, सब कुशल रहे इसलिए गंगा स्नान को जा रहा हूं, चलते हैं तो चलिए।

मेहरा भोर के झोंके में थे। वे अपने ओरिजनल फॉर्म से औपचारिक रूप में आते हुए बोले- 'नहीं-नहीं मित्रवर, आप जाइए और दिन का शुभारंभ करिए।' मेहरा क्षण भर को ही सही, आप अपने भीतर सो रही आत्मा के सुर में बोल रहे थे, अचानक महानगरीय खोल में क्यों सिमट गए,' मैं शिकायती लहजे में बोला।
Answered by Anonymous
30

•• कबीर ••

परिचय

कबीर भक्तिकाल के कवि थे । भक्तिकाल में

दो काव्य धारा व्याप्त थी , संगुन और निर्गुण ।

कबीर भक्तिकाल के निर्गुण काव्य धारा के

' ज्ञानाश्रेयी ' शाखा के प्रवर्तक थे । जिस

प्रकार ' जायसी ' प्रेम मार्गी शाखा के ।

भक्तिकाल के कवि होने के कारण उनमें भक्ति

का रस समाहित था।

अतः वह कवि तो थे ही साथ ही साथ भक्त भी

थे। इन सब से भी महत्वपूर्ण , कबीर ' एक

समाजसुधारक ' भी थे ।

भाषा

( कबीर वाणी के डिक्टेटर थे )

कबीर का अपने वाणी पर अच्छा नियंत्रण था

। उन्होंने अपनी व्यंगता से तत्कालीन कुरीतियों

के खिलाफ विद्रोह का स्वर जागृत किया ।

कबीर से अच्छा व्यंगकर आज तक कोई नहीं

हुआ है , ऐसा विद्वानों का मानना है । कबीर

की भाषा के विषय में ' आचार्य रामचन्द्र शुक्ल'

ने कहा है कि उनकी भाषा ' पंचमेल ' खिचड़ी

थी । अतः सधुक्कड़ी थी । उनके भाषाओं में

राजस्थानी, अरबी, फारसी, खड़ी बोली, ब्रज ,

पंजाबी का पुट मिलता है।

कबीर एक समाजसुधारक

कबीर के साहित्य के माध्यम से हमे उनकी

समाजसुधारक विर्ती का ज्ञात होता है । उनका

काव्य समाज में व्याप्त कुरीतियों का विरोध करता है वहीं दूसरी ओर उनका काव्य आज भी हमारे समाज में प्रासंगिक है।

1) कबीर ने मूर्ति पूजा का विरोध किया है । वह

कहते है कि :-

" पाहन पूजे तो हरि मिले , तो मैं पूंजो पहाड़।

ताते या चाकी भली , पीस खाए संसार ।। "

अर्थात कबीर के अनुसार अगर पत्थर पूजने से

भगवान की प्राप्ति होती है तो मैं पहाड़ की

पूजा करूंगा । ताकि भगवान मुझे जल्दी प्राप्त हो

जाए । कबीर यहां मूर्ति पूजा पर करारा

व्यंग करते है ।

2) कबीर गुरु की भक्ति को महत्व देते है तथा ।

उनको सबसे बड़ा मानते है । उनके अनुसार :-

" गुरु गोबिंद दोऊ खड़े , काके लागूं पाय ।

बलिहारी गुरु आपने , गोबिंद दियो बताए ।। "

3) कबीर जांत - पांत पर टिप्पणी करते है । वह

इन सब का विरोध करते हुए कहते है कि :-

" जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान, मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान। "

अर्थात साधु के ज्ञान का मोल करना चाहिए ,

महत्व देना चाहिए न कि उसके जाति का ।

4) कबीर प्रेम का महत्व समझाते हुए कहते है कि:-

" पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय ।

ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय ।। "

अर्थात् पोथी पढ़कर कोई पंडित नहीं होता ,

जो प्रेम से विनम्रता से लोगो से बात करें ,

उनसे बर्ताव करें वहीं सच्चा पंडित है ।

Similar questions