kahati Hai Piya Piya mein kaun sa Alankar hai
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पापनाशी ने एक नौका पर बैठकर, जो सिरापियन के धमार्श्रम के लिए खाद्यपदार्थ लिये जा रही थी, अपनी यात्रा समाप्त की और निज स्थान को लौट आया। जब वह किश्ती पर से उतरा तो उसके शिष्य उसका स्वागत करने के लिए नदी तट पर आ पहुंचे और खुशियां मनाने लगे। किसी ने आकाश की ओर हाथ उठाये, किसी ने धरती पर सिर झुकाकर गुरु के चरणों को स्पर्श किया। उन्हें पहले ही से अपनी गुरु के कृतकार्य होने का आत्मज्ञान हो गया था। योगियों को किसी गुप्त और अज्ञात रीति से अपने धर्म की विजय और गौरव के समाचार मिल जाते थे, और इतनी जल्द कि लोगों को आश्चर्य होता था। यह समाचार भी समस्त धमार्श्रमों में, जो उस परान्त में स्थित थे, आंधी के वेग के साथ फैल गया।
जब पापनाशी बलुवे मार्ग पर चला तो उसके शिष्य उसके पीछेपीछे ईश्वर कीर्तन करते हुए चले। लेवियन उस संस्था का सबसे वृद्ध सदस्य था। वह धमोर्न्मत्त होकर उच्चस्वर से यह स्वरचित गीत गाने लगा-आज का शुभ दिन है, कि हमारे पूज्य पिता ने फिर हमें गोद में लिया। वह धर्म का सेहरा सिर बांधे हुए आये हैं, जिसने हमारा गौरव बढ़ा दिया है। क्योंकि पिता का धर्म ही,सन्तान का यथार्थ धन है। हमारे पिता की सुकीर्ति की ज्योति से, हमारी कुटियों में परकाश फैल गया है। हमारे पिता पापनाशी,परभु मसीह के लिए नयी एक दुल्हन लाये हैं। अपने अलौकिक तेज और सिद्धि से, उन्होंने एक काली भेड़ को। जो अंधेरी घाटियों से मारीमारी फिरती थी, उजली भेड़ बना दिया है। इस भांति ईसाई धर्म की ध्वजा फहराते हुए, वह फिर हमारे ऊपर हाथ रखने के लिए लौट आये हैं। उन मधुमक्खियों की भांति,जो अपने छत्तों से उड़ जाती है। और फिर जंगलों से फूलों की,मधुसुधा लिये हुए लौटती हैं। न्युबिया के मेष की भांति, जो अपने ही ऊन का बोझ नहीं उठा सकता। हम आज के दिन आनन्दोत्सव मनायें,अपने भोजन में तेल को चुपड़कर।।
जब वह लोग पापनाशी की कुटी के द्वार पर आये तो सबके-सब घुटने टेककर बैठ गये और बोले-'पूज्य पिता ! हमें आशीवार्द दीजिए और हमें अपनी रोटियों को चुपड़ने के लिए थोड़ासा तेल परदान कीजिए कि हम आपके कुशलपूर्वक लौट आने पर आनन्द मनायें।'
मूर्ख पॉल अकेला चुपचाप खड़ा रहा। उसने न घाट ही पर आनन्द परकट किया था, और न इस समय जमीन पर गिरा। वह पापनाशी को पहचानता ही न था और सबसे पूछता था, 'यह कौन आदमी है ?' लेकिन कोई उसकी ओर ध्यान नहीं देता था, क्योंकि सभी जानते थे कि यद्यपि यह सिद्धि पराप्त है, पर है ज्ञानशून्य।
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पापनाशी ने एक नौका पर बैठकर, जो सिरापियन के धमार्श्रम के लिए खाद्यपदार्थ लिये जा रही थी, अपनी यात्रा समाप्त की और निज स्थान को लौट आया। जब वह किश्ती पर से उतरा तो उसके शिष्य उसका स्वागत करने के लिए नदी तट पर आ पहुंचे और खुशियां मनाने लगे। किसी ने आकाश की ओर हाथ उठाये, किसी ने धरती पर सिर झुकाकर गुरु के चरणों को स्पर्श किया। उन्हें पहले ही से अपनी गुरु के कृतकार्य होने का आत्मज्ञान हो गया था। योगियों को किसी गुप्त और अज्ञात रीति से अपने धर्म की विजय और गौरव के समाचार मिल जाते थे, और इतनी जल्द कि लोगों को आश्चर्य होता था। यह समाचार भी समस्त धमार्श्रमों में, जो उस परान्त में स्थित थे, आंधी के वेग के साथ फैल गया।
जब पापनाशी बलुवे मार्ग पर चला तो उसके शिष्य उसके पीछेपीछे ईश्वर कीर्तन करते हुए चले। लेवियन उस संस्था का सबसे वृद्ध सदस्य था। वह धमोर्न्मत्त होकर उच्चस्वर से यह स्वरचित गीत गाने लगा-आज का शुभ दिन है, कि हमारे पूज्य पिता ने फिर हमें गोद में लिया। वह धर्म का सेहरा सिर बांधे हुए आये हैं, जिसने हमारा गौरव बढ़ा दिया है। क्योंकि पिता का धर्म ही,सन्तान का यथार्थ धन है। हमारे पिता की सुकीर्ति की ज्योति से, हमारी कुटियों में परकाश फैल गया है। हमारे पिता पापनाशी,परभु मसीह के लिए नयी एक दुल्हन लाये हैं। अपने अलौकिक तेज और सिद्धि से, उन्होंने एक काली भेड़ को। जो अंधेरी घाटियों से मारीमारी फिरती थी, उजली भेड़ बना दिया है। इस भांति ईसाई धर्म की ध्वजा फहराते हुए, वह फिर हमारे ऊपर हाथ रखने के लिए लौट आये हैं। उन मधुमक्खियों की भांति,जो अपने छत्तों से उड़ जाती है। और फिर जंगलों से फूलों की,मधुसुधा लिये हुए लौटती हैं। न्युबिया के मेष की भांति, जो अपने ही ऊन का बोझ नहीं उठा सकता। हम आज के दिन आनन्दोत्सव मनायें,अपने भोजन में तेल को चुपड़कर।।
जब वह लोग पापनाशी की कुटी के द्वार पर आये तो सबके-सब घुटने टेककर बैठ गये और बोले-'पूज्य पिता ! हमें आशीवार्द दीजिए और हमें अपनी रोटियों को चुपड़ने के लिए थोड़ासा तेल परदान कीजिए कि हम आपके कुशलपूर्वक लौट आने पर आनन्द मनायें।'
मूर्ख पॉल अकेला चुपचाप खड़ा रहा। उसने न घाट ही पर आनन्द परकट किया था, और न इस समय जमीन पर गिरा। वह पापनाशी को पहचानता ही न था और सबसे पूछता था, 'यह कौन आदमी है ?' लेकिन कोई उसकी ओर ध्यान नहीं देता था, क्योंकि सभी जानते थे कि यद्यपि यह सिद्धि पराप्त है, पर है ज्ञानशून्य।