कल का भारत या 21वीं सदी का भारत (DEBATE)
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निबंध नंबर : 01
कल का भारत
या
21वीं सदी का भारत
बीसवीं शताब्दी का अंत होने को है और इक्कीसवीं शताब्दी के स्वागत की तैयारी की जा रही है। हर शताब्दी के साथ ही हुआ है। शताब्दियां ऐसे ही बीती हैं। हर शताब्दी का इतिहास रोमांच से भरा होता है। इतिहास इसका गवाह है।
मनुष्य को हमेशा आने वाले समय की चिंता रहती है। चिंतकों को आने वाले कल की चिंता सताए रहती है कि भावी समाज कैसा होगा?
आम आदमी अपने कल की चिंता करता है। भारत के आम आदमी का जीवन प्राय: कल की चिंता में ही गुजर जाता है। प्राय: वह आज को नहीं जी पाता है। उसका आज असुरक्षित है, उसका अतीत भी असुरक्षा की आशंका में बीता है और भविष्य भी सुरक्षा की चिंता में डूबे हुए बीत जाएगा। लेकिन उसके हाथ कुछ नहीं आएगा।
आज एशिया के अधिकांश देश गरीबी से जूझ रहे हैं। वे कल की संभावना को नहीं समझ सकते। उनके लिए कल की संकल्पना का कोई अर्थ नहीं है। आज की दुनिया एक ही समय में पंद्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी में जा रही है। आदिवासी लोग भी आज जी रहे हैं।
जरा वचार कीजिए कि आने वाले कल से ऐसे समाज की आशा कैसे की जा सकती है जो अभी सदियों पीछे है और अपनी जिंदगी की गाड़ी को जैसे-तैसे घसीट रहा है। एक छवि ने आने वाले समाज की संकल्पना की है-
हम लूले, लंगड़े और अपाहित है
भविष्य है भी क्या? होगा भी क्या? न भरपेट रोटी खाने को मिल पाती हैख् न पहनने के लिए ढंग के कपड़े हैं और न रहने के लिए मकान है। फिर उनके लिए किसी शताब्दी के जाने-आने का कोई महत्व नहीं है। वे तो शताब्दी में ठूंठ की तरह जिंदा रहते हैं।
यदि अपने देश के प्रधानमंत्री देश को इक्कीसवीं शताब्दी में ले जाना चाहें तो आप सोचिए कि वे इस देश को इक्कीसवीं शताब्दी में कैसे ले जाएंगे? क्या मुफलिसी, भुखमरी, चिथड़े लिपटे लोगों और फुटपाथ पर रहने वाले लोगों को लेकर प्रवेश करेंगे। क्या वे आतंकावद की चपेट में आए पंजाब को लेकर प्रवेश करेंगे क्या वे अशिक्षितों की भीड़ को लेकर प्रवेश करेंगे? क्या वे सती प्रथा में आस्था रखने वालों को लेकर प्रवेश करेंगे? क्या है, जिसको लेकर वे इक्कीसवीं शताब्दी में प्रवेश करने का दावा कर रहे हैं?
आइए, आप भी जहां हैं, वहीं से सहयोग कीजिए। ध्यान रखिए, सब कुछ संभव हो सकता है, यदि दूर दृष्टि, पक्का इरादा और करने की शक्ति हो। कोई भी नहीं चाहता कि वह यथास्थिति पड़ा रहे, उसमें कोई परिवर्तन ही न हो। व्यक्ति ठूंठ नहीं है। वह चैतन्य है। उसमें उर्वरा शक्ति है वह कल्पना करता है। वह आने वाले कल की कल्पना कर सकता है।
वास्तव में सच्चाई यह है कि मनुष्य जो है, उससे हटकर सोचकर आनंदित होता है। वह उसका सुंदर व काल्पनिक भविश्य होता है, जिसके सहारे वह वर्तमान की कड़वाहट को कुछ समय के लिए भूल जाता है।
एक तरह से देखा जाए तो मनुष्य धीरे-धीरे नैतिकता के प्रति अनुत्तरदायी सिद्ध होता जा रहा है। उसका चारित्रिक पतन निरंतर होता जा रहा है। दूसरी ओर, भौतिक और वैज्ञानिक उन्नति की दिशा में मह आगे बढ़ रहा है। वह विश्वयुद्ध के भय की गिरफ्त में आ चुका है। इस प्रकार का विश्वयुद्ध वैज्ञानिक आइंसटीन के शब्दों में ‘इतना भयानक होगा किस उसके बाद मानव जाति अपने आपको पुन: पाषाण युग में पाएगी। अर्थात भयावह सर्वनाश होगा।’ क्या इक्कीसवीं शताब्दी में इस आशा अथवा भयाशंका का आगमन नहीं हो रहा है?
आज सभी देश आपस में उलझे हुए हैं। उनमें एक-दूसरे पर विश्वास नहीं है। आज शोषण-चक्र तेज है। और गुलामी का दौर बदस्तूर चल रहा है। संसार में आतंकवाद पांव जमाता जा रहा है। सरेआम हत्यांए हो रही हैं। विशाल खेल आयोजन भारी सुरक्षा प्रबंध के बाद ही हो पा रहे हैं और फिर भी खिलाडिय़ों की हत्यांए सरेआम हो रही हैं। विकसित व अद्धविकसित देशों में आतंकवाद पांव जमाने लगा है। इससे यह सोचा जा रहा है कि कहीं लोकतंत्र के स्थान पर आतंकतंत्र तो स्थापित नहीं हो जाएगा। इसके अनेक देशों के उदाहरण सामने आ चुके हैं, जहां लोकतंत्र को रौंदकर सैनिक शासन स्थापित हुआ है। वहां बराबर लोकतंत्र बहाली के लिए आंदोलन, प्रदर्शन, हिंसा का दौर चल रहा है। वर्मा, पाकिस्तान, बंगलादेश आदि में एक प्रकार की तानाशाही ही है। वहां फौजी शासन ही है। मजे की बात यह है कि उन देशों से जहां लोकतंत्र विदा हुआ है किसी भी लोकतंत्रिक देश ने संबंध विच्छेद नहीं किए हैं। इसके विपरीत अनेक लोकतांत्रिक देशों ने उनसे हाथ मिलाया है। इसका यह अर्थ नहीं है कि वे देश भी लोकतंत्रात्मक पद्धति को अंदर ही अंदर तिलांजलि देना चाहते हैं। यों अनेक देशों में जहां लोकतंत्र है एक ही दल का एकाधिकार बना हुआ है। वहां की जनता लोकतंत्र को किसी सीमा तक राजतंत्र ही मानकर चल रही है। इस दृष्टि से भावी समाज को बहुत खतरे हैं।
21वीं सदी में भी दुनिया के सामने जनसंख्या ओर अशिक्षितों की भीड़ लगी हुई है। गरीबी-रेखा के नीचे पहले से अधिक जनसंख्या विद्यमान है। पानी का संकट भी है और प्रदूषण के क्षेत्र का विस्तार हो रहा है। युद्ध-अभ्यास बराबर होते जा रहे हैं। पेट्रोल, डीजल, कोयले का भंडार खत्म होने के कागार पर हैं। जलवायु ओर मौसम में परिवर्तन हो रहा है। मानसून अपनी दिशा बदल रहा है। मानसून गड़बड़ा भी रहा है। असमय वर्षा हो रही है, बादल फट रहे हैं और प्रकृति भयंकर रूप धारण करके सामने आ रही है।
वर्तमान समाज की यह संकल्पना, दुखद और त्रासदीजनक है। व्यक्ति-व्यक्ति से तेजी से अलग हो रहा है और पदार्थ से संबंध जोड़ रहा है। लगता है, इक्कीसवीं सदी को समाज में व्यक्ति बहुत कुछ अपनी पहचान खो रहा है। निस्संदेह आने वाला कल उसका अपना नहीं होगा। उसे पहले की अपेक्षा औरजटिल जिंदगी जीनी पड़ रही है। समस्यांए सुरक्षा के समान तेजी से अपना आकार बढ़ा रही है। मानवाधिकार का हनन औरभावी समाज भय, आतंक, ईष्र्या, द्वेष, हिंसा आदि की गिरफ्त में हैं। वह कल की अपेक्षा अधिक असुरक्षित और कमजोर है। कोई ईश्वरीय या प्राकृतिक चमत्कार ही वर्तमान स्वार्थी व्यक्ति को लक्ष्यनिर्माता बना सकता है।
mark me brilliant please.....
कल का भारत
या
21वीं सदी का भारत
बीसवीं शताब्दी का अंत होने को है और इक्कीसवीं शताब्दी के स्वागत की तैयारी की जा रही है। हर शताब्दी के साथ ही हुआ है। शताब्दियां ऐसे ही बीती हैं। हर शताब्दी का इतिहास रोमांच से भरा होता है। इतिहास इसका गवाह है।
मनुष्य को हमेशा आने वाले समय की चिंता रहती है। चिंतकों को आने वाले कल की चिंता सताए रहती है कि भावी समाज कैसा होगा?
आम आदमी अपने कल की चिंता करता है। भारत के आम आदमी का जीवन प्राय: कल की चिंता में ही गुजर जाता है। प्राय: वह आज को नहीं जी पाता है। उसका आज असुरक्षित है, उसका अतीत भी असुरक्षा की आशंका में बीता है और भविष्य भी सुरक्षा की चिंता में डूबे हुए बीत जाएगा। लेकिन उसके हाथ कुछ नहीं आएगा।
आज एशिया के अधिकांश देश गरीबी से जूझ रहे हैं। वे कल की संभावना को नहीं समझ सकते। उनके लिए कल की संकल्पना का कोई अर्थ नहीं है। आज की दुनिया एक ही समय में पंद्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी में जा रही है। आदिवासी लोग भी आज जी रहे हैं।
जरा वचार कीजिए कि आने वाले कल से ऐसे समाज की आशा कैसे की जा सकती है जो अभी सदियों पीछे है और अपनी जिंदगी की गाड़ी को जैसे-तैसे घसीट रहा है। एक छवि ने आने वाले समाज की संकल्पना की है-
हम लूले, लंगड़े और अपाहित है
भविष्य है भी क्या? होगा भी क्या? न भरपेट रोटी खाने को मिल पाती हैख् न पहनने के लिए ढंग के कपड़े हैं और न रहने के लिए मकान है। फिर उनके लिए किसी शताब्दी के जाने-आने का कोई महत्व नहीं है। वे तो शताब्दी में ठूंठ की तरह जिंदा रहते हैं।
यदि अपने देश के प्रधानमंत्री देश को इक्कीसवीं शताब्दी में ले जाना चाहें तो आप सोचिए कि वे इस देश को इक्कीसवीं शताब्दी में कैसे ले जाएंगे? क्या मुफलिसी, भुखमरी, चिथड़े लिपटे लोगों और फुटपाथ पर रहने वाले लोगों को लेकर प्रवेश करेंगे। क्या वे आतंकावद की चपेट में आए पंजाब को लेकर प्रवेश करेंगे क्या वे अशिक्षितों की भीड़ को लेकर प्रवेश करेंगे? क्या वे सती प्रथा में आस्था रखने वालों को लेकर प्रवेश करेंगे? क्या है, जिसको लेकर वे इक्कीसवीं शताब्दी में प्रवेश करने का दावा कर रहे हैं?
आइए, आप भी जहां हैं, वहीं से सहयोग कीजिए। ध्यान रखिए, सब कुछ संभव हो सकता है, यदि दूर दृष्टि, पक्का इरादा और करने की शक्ति हो। कोई भी नहीं चाहता कि वह यथास्थिति पड़ा रहे, उसमें कोई परिवर्तन ही न हो। व्यक्ति ठूंठ नहीं है। वह चैतन्य है। उसमें उर्वरा शक्ति है वह कल्पना करता है। वह आने वाले कल की कल्पना कर सकता है।
वास्तव में सच्चाई यह है कि मनुष्य जो है, उससे हटकर सोचकर आनंदित होता है। वह उसका सुंदर व काल्पनिक भविश्य होता है, जिसके सहारे वह वर्तमान की कड़वाहट को कुछ समय के लिए भूल जाता है।
एक तरह से देखा जाए तो मनुष्य धीरे-धीरे नैतिकता के प्रति अनुत्तरदायी सिद्ध होता जा रहा है। उसका चारित्रिक पतन निरंतर होता जा रहा है। दूसरी ओर, भौतिक और वैज्ञानिक उन्नति की दिशा में मह आगे बढ़ रहा है। वह विश्वयुद्ध के भय की गिरफ्त में आ चुका है। इस प्रकार का विश्वयुद्ध वैज्ञानिक आइंसटीन के शब्दों में ‘इतना भयानक होगा किस उसके बाद मानव जाति अपने आपको पुन: पाषाण युग में पाएगी। अर्थात भयावह सर्वनाश होगा।’ क्या इक्कीसवीं शताब्दी में इस आशा अथवा भयाशंका का आगमन नहीं हो रहा है?
आज सभी देश आपस में उलझे हुए हैं। उनमें एक-दूसरे पर विश्वास नहीं है। आज शोषण-चक्र तेज है। और गुलामी का दौर बदस्तूर चल रहा है। संसार में आतंकवाद पांव जमाता जा रहा है। सरेआम हत्यांए हो रही हैं। विशाल खेल आयोजन भारी सुरक्षा प्रबंध के बाद ही हो पा रहे हैं और फिर भी खिलाडिय़ों की हत्यांए सरेआम हो रही हैं। विकसित व अद्धविकसित देशों में आतंकवाद पांव जमाने लगा है। इससे यह सोचा जा रहा है कि कहीं लोकतंत्र के स्थान पर आतंकतंत्र तो स्थापित नहीं हो जाएगा। इसके अनेक देशों के उदाहरण सामने आ चुके हैं, जहां लोकतंत्र को रौंदकर सैनिक शासन स्थापित हुआ है। वहां बराबर लोकतंत्र बहाली के लिए आंदोलन, प्रदर्शन, हिंसा का दौर चल रहा है। वर्मा, पाकिस्तान, बंगलादेश आदि में एक प्रकार की तानाशाही ही है। वहां फौजी शासन ही है। मजे की बात यह है कि उन देशों से जहां लोकतंत्र विदा हुआ है किसी भी लोकतंत्रिक देश ने संबंध विच्छेद नहीं किए हैं। इसके विपरीत अनेक लोकतांत्रिक देशों ने उनसे हाथ मिलाया है। इसका यह अर्थ नहीं है कि वे देश भी लोकतंत्रात्मक पद्धति को अंदर ही अंदर तिलांजलि देना चाहते हैं। यों अनेक देशों में जहां लोकतंत्र है एक ही दल का एकाधिकार बना हुआ है। वहां की जनता लोकतंत्र को किसी सीमा तक राजतंत्र ही मानकर चल रही है। इस दृष्टि से भावी समाज को बहुत खतरे हैं।
21वीं सदी में भी दुनिया के सामने जनसंख्या ओर अशिक्षितों की भीड़ लगी हुई है। गरीबी-रेखा के नीचे पहले से अधिक जनसंख्या विद्यमान है। पानी का संकट भी है और प्रदूषण के क्षेत्र का विस्तार हो रहा है। युद्ध-अभ्यास बराबर होते जा रहे हैं। पेट्रोल, डीजल, कोयले का भंडार खत्म होने के कागार पर हैं। जलवायु ओर मौसम में परिवर्तन हो रहा है। मानसून अपनी दिशा बदल रहा है। मानसून गड़बड़ा भी रहा है। असमय वर्षा हो रही है, बादल फट रहे हैं और प्रकृति भयंकर रूप धारण करके सामने आ रही है।
वर्तमान समाज की यह संकल्पना, दुखद और त्रासदीजनक है। व्यक्ति-व्यक्ति से तेजी से अलग हो रहा है और पदार्थ से संबंध जोड़ रहा है। लगता है, इक्कीसवीं सदी को समाज में व्यक्ति बहुत कुछ अपनी पहचान खो रहा है। निस्संदेह आने वाला कल उसका अपना नहीं होगा। उसे पहले की अपेक्षा औरजटिल जिंदगी जीनी पड़ रही है। समस्यांए सुरक्षा के समान तेजी से अपना आकार बढ़ा रही है। मानवाधिकार का हनन औरभावी समाज भय, आतंक, ईष्र्या, द्वेष, हिंसा आदि की गिरफ्त में हैं। वह कल की अपेक्षा अधिक असुरक्षित और कमजोर है। कोई ईश्वरीय या प्राकृतिक चमत्कार ही वर्तमान स्वार्थी व्यक्ति को लक्ष्यनिर्माता बना सकता है।
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