कल्पना कीजिए कि आप की सेना में सिपाही विद्रोह के बारे में अपने विचार लिखिए
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Explanation:
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में झारखंड की जनजातियों का अप्रतिम योगदान रहा है। 1857 के प्रथम संग्राम के करीब 26 साल पहलेकोल विद्रोह ही झारखंड की जनजातियों ने अंग्रेजी शासन के खिलाफ विद्रोह किया था। झारखंड की सांस्कृतिक पहचान का राजनीतिक अर्थ भी पहली बार 1831 के कोल विद्रोह से उजागर हुआ था। उसमें मुंडा, हो, उरांव, भुइयां आदि जनजातियां शामिल हुईं। इस विद्रोह के केंद्र थे रांची, सिंहभूम और पलामू। ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ यह संभवत: पहला विराट आदिवासी आंदोलन था। इतिहासकार इस विद्रोह को झारखंड क्षेत्रा का विकराल अध्याय मानते हैं। हालांकि इसके पूर्व 1783 में तिलका मांझी का विद्रोह और 1795-1800 में चेरो आंदोलन पूरे झारखंड क्षेत्र में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ सुलगती-फैलती 'जंगल की आग' का संकेत दे चुके थे। तिलका मांझी ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ संघर्ष की चेतना फैलाने वाले 'आदिविद्रोही' थे। उन्होंने 1772 में जमीन व फसल पर परम्परागत अधिकार के लिए संघर्ष छेड़ा। उनके नेतृत्व में संघर्ष का संदेश गांव-गांव में सखुआ का पत्ता घुमाकर किया जाता था। तिलका मांझी ने सुलतानगंज की पहाड़ियों से छापामार युद्ध का नेतृत्व किया था। तिलका के तीरों से अंग्रेज सेना का नायक अगस्टीन क्लीवलैंड घायल हुआ। 1785 में तिलका मांझी को भागलपुर में फांसी दी गयी। वह स्थान आज भागलपुर में तिलका मांझी चौक के नाम से जाना जाता है।
कोल विद्रोह के पहले ही 1795-1800 तक तमाड़ विद्रोह, 1797 में विष्णु मानकी के नेतृत्व में बुंडू में मुंडा विद्रोह, 1798 में चुआड़ विद्रोह, 1798-99 में मानभूम में भूमिज विद्रोह और 1800 में पलामू में चेरो विद्रोह ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ विद्रोह की अटूट शृंखला कायम कर दी थी।
यह स्मरण रखना चाहिए कि छोटानागपुर का क्षेत्र 1765 ई. में अंग्रेजी राज में सम्मिलित हो चुका था लेकिन इस क्षेत्र पर कई-कई साल तक अंग्रेजों का पूर्ण आधिपत्य स्थापित नहीं हो सका। 1816-17 में छोटानागपुर के राजा की दंड-शक्ति पूरी तरह से छीन ली गयी। निरंतर जारी विद्रोहों की वजह से मजिस्ट्रेट और कलेक्टर के अधीन यहां प्रत्यक्ष शासन की स्थापना हुई। प्रत्यक्ष शासन के साथ शुरू हुई 'रेगुलेशन' की परिपाटी (बिहार में अंग्रेजी राज के विरुद्ध अशांति(1831-1859, संपादक: डा. कालीकिंकर दत्ता)।
छोटानागपुर क्षेत्र में हुए कोल विद्रोह के नायक थे सिंदराय और बिंदराय मानकी। यह विद्रोह 11 दिसम्बर, 1831 को फूट पड़ा। 19 मार्च 1832 को कैप्टन विल्किंसन के नेतृत्व में सेना की टुकड़ियों ने इस विद्रोह को दबा दिया।
संयुक्त कमिश्नर विल्किंसन और डेंट ने, जिनकी नियुक्ति उस विद्रोह को दबाने के लिए हुई थी, विद्रोह की वजहों को रेखांकित करते हुए अपनी रिपोर्ट में लिखा - ' पिछले कुछ वर्षों के भीतर पूरे नागपुर भर के कोलों पर वहां के इलाकादारों, जमींदारों और ठेकेदारों ने 35 प्रतिशत लगान बढ़ा दिये हैं। परगने भर की सड़कें उन्हें (कोलों को) बिना किसी मजदूरी के बेगारी द्वारा बनानी पड़ी थीं। महाजन लोग, जो उन्हें रुपये या अनाज उधार दिया करते थे, 12 महीने के भीतर ही उनसे 70 प्रतिशत और कभी-कभी उससे भी ज्यादा वसूल कर लेते थे। उन्हें शराब पर लगाये गये कर, जिसकी दर तो चार आना प्रति घर के हिसाब से निश्चित थी लेकिन जिसकी वसूली आम तौर पर इससे कहीं अधिक की जाती थी और उसके अलावे सलामी के रूप में प्रति गांव एक रुपया और एक बकरी भी ली जाती थी, से सख्त नफरत थी। कोलों को अफीम की खेती नापसंद थी। हाल में वहां एक ऐसी डाक प्रणाली चलायी गयी थी, जिसका पूरा खर्च गांव के कोलों को वहन करना पड़ता था। कोलों के बीच यह भी शिकायत का विषय था कि जो लोग बाहर से आकर नागपुर में बसे हैं, उनमें से बहुतों ने, जिनका कोलों पर बेतरह कर्ज लद गया है, अपने कर्ज की वसूली के लिए बहुत सख्ती की है। बहुत से कोलों को उनके नाम 'सेवक-पट्टा' लिख देना पड़ा है। यानी उनके हाथ अपनी सेवा तब तक के लिए बेच देनी पड़ी है, जब तक कर्ज अदा नहीं हो जाय। इसका मतलब है अपने आप को ऐसे बंधन में डाल देना कि उनकी पूरी कमाई का पूरा हकदार महाजन बन जाय और वे जीवन भर के लिए महाजन के दास बन जायें।'
बंगाल सरकार को 1 मार्च, 1833 को लिखे विल्किंसन का पत्र, संयुक्त कमिश्नर डेंट की ओर से बंगाल सरकार को भेजी गयी 4 अगस्त, 1833 की रिपोर्ट और 15 मार्च, 1832 को भेजी गयी रामगढ़ के मजिस्ट्रेट नीभ की रिपोर्ट से यह भी स्पष्ट होता है कि कोल विद्रोह में छोटानागपुर के कई जमींदार और राज परिवार शामिल थे। नागपुर के राजा और बसिया के कुंअर के बारे में अंग्रेज सरकार का ख्याल था - 'कई कारणों से राजा हमलोगों के आधिपत्य से छुटकारा पाने की इच्छा कर सकता है।' इसी तरह सिंहभूमि में वहां के राजा अचेत सिंह और उसके दीवान पर कोलों को विद्रोह के लिए उकसाने का अभियोग लगाया गया। मानभूमि में, जहां सबसे अंत में विद्रोह हुआ, भूमिज कोलों का नेतृत्व बड़ाभूमि के राजपरिवार के गंगानारायण सिंह कर रहे थे। उनके साथ उस इलाके के और भी कई कुअंर-जमींदार विद्रोह में शामिल थे। पलामू में चेरो और खरवारों ने अपने-अपने सरदारों के नेतृत्व में बगावत की।
1831 में कोल विद्रोह के फूटने की शुरुआती वजहों के बारे लिखते हुए विल्किंसन ने 12 पफरवरी, 1832 की अपनी रिपोर्ट में कहा - 'रांची जिला में ईचागुटू परगने के सिंहराय मानकी के 12 गांवों को कुछ बाहरी लोगों के हाथ ठीका दे दिया गया था। उन लोगों ने मानकी को न केवल बेदखल किया, वरन उसकी दो जवान बहनों को बहका कर उनके साथ बलात्कार भी किया था।