कमरिया का टिप्पणी लिखो। Please help .......
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बुधवार, 27 जुलाई 2011
देसिल बयना -91:जैसी तेरी कमरिया वैसा मेरा गीत
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करण समस्तीपुरी
ग्राम्य-जीवन की बात ही अलाहिदा है। आहा… सकल रास-रंग। जीवन के उमंग…! खास कर फ़ागुन और सावन में गाँव नहीं देखे तो अगिला कौआ जनम। अब का खोल के बतायें… ? बुझिये कि सावन में गाँव का यौबन हरियाता है और फ़ागुन में गदराता है। हरि बोल!
फ़ागुन से गोरिया दिन गिनना शुरु करती है, बलमुआ आता है सावन में। “चढ़ते फ़गुनवा सगुनवा मनावै गोरी, चैता करे रे उपवास… ! गरमी बेसरमी न बेनिया डोलावै मन… डारे सैंय्या गलवा में फ़ांस!’ सही में पावस बरसा कि प्रकृति के यौवन से रस टपकने लगता है।
रेवाखंड के लिये सावन के माने था हर ओर हरियाली। खेतों में लहराये हरी-हरी चुनरी। धान रोपे किसान। धनिया लाए जलपान। अगंराई धरती ले… हरषे आसमान। सावन हमरे रेवाखंड की पहचान। चढ़ते सावन ठकु्रवाड़ी पर लगता था विषहर मेला और इजोरिया पक्ख में झूला… ! ई अलमस्ती ठेका देता था भादो के संक्रान्ति तक।
जैसे झूला में बनरसिया नौटंकी नामी था वैसहि विषहर मेला में विसुनी मिरदंगिया। आहहह…. विसुनिया मिरदंगिया का नाम लेते ही कान में गूंज पड़ते हैं, ’डिगे…. धां…. डिगे….. धां….. धा…. धिन्ना… धिग… तिरकिट धिन्ना…. ! और मिरदंग के ताल पर छम…छम… छम…. छम…. छम… छम…छम….छम…… मटर की छिमरी जैसी मचलती महुआ नट्टिन….!
विसुनी गीत भी गाता था चुन-चुन के, “मोरी कलैय्या सुकुमार हो…. चुभ जा ला कंगनमा…!" उके मजीरची को तो मूछ की रेखा तक नहीं आयी थी मगर मजिरा बजाता था एकदम ताल मिला के और विसुनी के पीछे सुर भी लगाता था लय में। ’झुमका गिरा रे…. बरेली के बाजार…’ वाला गीत पर तो महुआ अंग-अंग तोड़ देती थी। छम… छमा… छम… लगे कि बिजली का नाच है। तीखे नैन-नक्श, छरहरी काया, बकोटा भर की कमरिया जब लौंग की डाली तरह लचकती थी तो चारे तरफ़ आये-हाये…! विसुनी के आगे रेजगारी की ढेर लग जाती थी। बीच-बाच में एकाध मुड़े-तुड़े कागजी नोट भी। कितने लोग तो कहते थे कि महुआ जैसी नचनिया तो बनारस के नौटंकी में भी नहीं है।