करोना महामारी के चलते पर्यावरण, समाज तथा देश में आए नकारात्मक तथा सकारात्मक प्रभावों का वर्णन कम से कम 200 से 250 शब्दों में कीजिए
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लॉकडाउन की वजह से तमाम फ़ैक्ट्रियां बंद हैं. यातायात के तमाम साधन बंद हैं. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अर्थव्यवस्था को भारी धक्का लग रहा है. लाखों लोग बेरोज़गार हुए हैं. शेयर बाज़ार ओंधे मुंह आ गिरा है. लेकिन अच्छी बात ये है कि कार्बन उत्सर्जन रुक गया है. अमरीका के न्यूयॉर्क शहर की ही बात करें तो पिछले साल की तुलना में इस साल वहां प्रदूषण 50 प्रतिशत कम हो गया है.
साफ़ हो रही है हवा
इसी तरह चीन में भी कार्बन उत्सर्जन में 25 फ़ीसद की कमी आई है. चीन के 6 बड़े पावर हाउस में 2019 के अंतिम महीनों से ही कोयले के इस्तेमाल में 40 फीसद की कमी आई है. पिछले साल इन्हीं दिनों की तुलना में चीन के 337 शहरों की हवा की गुणवत्ता में 11.4 फ़ीसद का सुधार हुआ. ये आंकड़े खुद चीन के पर्यावरण मंत्रालय ने जारी किए हैं. यूरोप की सैटेलाइट तस्वीरें ये बताती हैं कि उत्तरी इटली से नाइट्रोजन डाई ऑक्साइड उत्सर्जन कम हो रहा है. ब्रिटेन और स्पेन की भी कुछ ऐसी ही कहानी है.
लॉकडाउन के बाद?
कुछ लोगों का कहना है कि इस महामारी को पर्यावरण में बदलाव के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए. अभी सब कुछ बंद है, तो कार्बन उत्सर्जन रुक गया है. लेकिन जब दुनिया फिर से पहले की तरह चलने लगी तो क्या ये कार्बन उत्सर्जन फिर से नहीं बढ़ेगा? पर्यावरण में जो बदलाव हम आज देख रहे हैं क्या वो हमेशा के लिए स्थिर हो जाएंगे.
स्वीडन के एक जानकार और रिसर्चर किम्बर्ले निकोलस के मुताबिक़, दुनिया के कुल कार्बन उत्सर्जन का 23 फ़ीसद परिवहन से निकलता है. इनमें से भी निजी गाड़ियों और हवाई जहाज़ की वजह से दुनिया भर में 72 फीसद कार्बन उत्सर्जन होता है. अभी लोग घरों में बंद हैं. ऑफ़िस का काम भी घर से कर रहे हैं. अपने परिवार और दोस्तों को वक़्त दे पा रहे हैं. निकोलस कहते हैं कि मुश्किल की इस घड़ी में हो सकता है लोग इसकी अहमियत समझें और बेवजह गाड़ी लेकर घर से निकलने से बचें.
अगर ऐसा होता है तो मौजूदा पर्यावरण के हालात थोड़े परिवर्तन के साथ लंबे समय तक चल सकते हैं. वही निकोलस ये भी कहते हैं कि बहुत से लोगों के लिए हर रोज़ ऑफ़िस आना और दिल लगाकर काम करना ही ज़िंदगी का मक़सद होता है. इस दिनों उन्हें घर में बैठना बिल्कुल नहीं भा रहा होगा. वो इस लॉकडाउन को क़ैद की तरह देख रहे होंगे. हो सकता है वो अभी ये प्लानिंग ही कर रहे हों कि जैसे ही लॉकडाउन हटेगा वो फिर से कहीं घूमने निकलेंगे. लॉन्ग ड्राइव पर जाएंगे. अगर ऐसा होता है तो बहुत जल्द दुनिया की आब-ओ-हवा में ज़हर घुलने लगेगा.
कम होता प्रदूषण
ऐसा पहली बार नहीं है कि किसी महामारी के चलते कार्बनडाई ऑक्साइड का स्तर कम हुआ हो. इतिहास में इसके कई उदाहरण मिलते हैं. यहां तक कि औद्योगिक क्रांति से पहले भी ये बदलाव देखा गया था. जर्मनी की एक जानकार जूलिया पोंग्रात्स का कहना है कि यूरोप में चौदहवीं सदी में आई ब्लैक डेथ हो, या दक्षिण अमरीका में फैली छोटी चेचक.
सभी महामारियों के बाद वातावरण में कार्बन डाई ऑक्साइड का स्तर कम दर्ज किया गया था. उस दौर में परिवहन के साधन भी बहुत सीमित थे. और जब महामारियों के चलते बहुत लोगों की मौत हो गई, तो खेती की ज़मीन भी खाली हो गई और वहां ऐसे जंगली पौधे और घास पैदा हो गए जिससे गुणवत्ता वाली कार्बन निकली.
पर्यावरण को बचाने के लिए लोगों को अपनी आदतें बदलनी होंगी. अगर वो ख़ुद नहीं बदलते हैं, तो उन्हें जबरन बदलवाना पड़ेगा जैसा जापान के क्योटो शहर में हुआ था. साल 2001 में यहां मोटर वाले रास्ते बंद कर दिए गए और लोगों को सार्वजनिक परिवहन इस्तेमाल करने को मजबूर किया गया. धीरे-धीरे ये लोगों की आदत में शामिल हो गया. जब दोबारा रास्ते खुले तो भी ज़्यादातर लोग सार्वजनिक परिवहन का ही इस्तेमाल कर रहे थे. लेकिन इसके लिए सरकारों को सार्वजनिक परिवहन की स्थिति बेहतर करनी होगी.
कोरोना वायरस की महामारी ने ना जाने कितनों से उनके अपनों को हमेशा के लिए जुदा कर दिया है. हमारे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर इसका बहुत नकारात्म प्रभाव पड़ रहा है. ना जाने कितनों का रोज़गार ख़त्म हुआ है. अर्थव्यवस्था पटरी पर कब लौटेगी ये भी कहना मुश्किल है. लेकिन इस महामारी ने एक बात साफ़ कर दी कि मुश्किल घड़ी में सारी दुनिया एक साथ खड़ी होकर एक दूसरे का साथ देने के लिए तैयार है. तो फिर क्या यही जज़्बा और इच्छा शक्ति हम पर्यावरण बचाने के लिए ज़ाहिर नहीं कर सकते? हमें उम्मीद है इस समय का अंधकार हम स्वच्छ और हरे-भरे वातारण से मिटा देंगे
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