Hindi, asked by hemanth240502, 11 months ago

Kartoos path ke Aadhar par Shahad Ali ka Charitra chitran ​

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Answered by rudracomedy
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आधुनिक हिन्दी साहित्य की जिन गद्यात्मक विधाओं का विकास विगत एक शताब्दी में हुआ है, उनमें एकांकी का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से, हिन्दी-साहित्य में इसका उद्भव उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम चतुर्थाश में माना जाता है। यदि इसके संवादात्मक स्वरूप एवं एक नाट्य विधा के अस्तित्व के परिप्रेक्ष्य में विचार किया जाय तो इसके सूत्र हमें अत्यन्त प्राचीन समय से मिलने लगते हैं।

आधुनिक एकांकी वैज्ञानिक युग की देन है। विज्ञान के फलस्वरूप मानव के समय और शक्ति की बचत हुई है। पिफर भी जीवन संघर्ष में मानव की दौड़-धूप अव्याहत जारी है। जीवन की त्रस्तता और व्यस्तता के कारण आधुनिक मानव के पास इतना समय नहीं है कि वह बड़े-बड़े नाटकों, उपन्यासों, महाकाव्यों आदि का सम्पूर्णतः रसास्वादन कर सके और इसलिए गीत, कहानी, एकांकी आदि साहित्य के लघुरूपों को अपनाया जा रहा है। किन्तु एकांकी की लोकप्रियता का एकमात्र कारण समयाभाव ही नहीं है। भोलानाथ तिवारी के शब्दों में ‘‘यह नहीं कहा जा सकता कि चूंकि हमारे पास बड़ी-बड़ी साहित्यिक रचनाओं को पढ़ने के लिए समय नहीं हैं, इसलिए हम गीत, कहानी, एकांकी आदि पढ़ते हैं। बात यह है कि हम जीवन की महत्त्वपूर्ण घटनाओं और समस्याओं आदि को क्रमबद्ध एवं समग्र रूप से भी अभिव्यक्त देखना चाहते हैं और उन अभिव्यक्तियों का स्वागत करते हैं मगर साथ ही साथ किसी एक महत्त्वपूर्ण भावना, किसी एक उद्दीप्त क्षण, किसी एक असाधारण एवं प्रभावशाली घटना या घटनांश की अभिव्यक्ति का भी स्वागत करते हैं। हम कभी अनगिन फूलों से सुसज्जित सलोनी वाटिका पसन्द करते हैं और कभी भीनी सुगन्धि देने वाली खिलने को तैयार नन्हीं सी कली। दोनों बातें हैं, दो रुचियाँ हैं, दो पृथक किन्तु समान रूप से महत्त्वपूर्ण दृष्टिकोण हैं, समय के अभाव या अधिकता की इसमें कोई बात नहीं।’’

इस प्रकार, समयाभाव के अतिरिक्त एकांकी की लोकप्रियता के अन्य भी कई कारण हैं यथा देश में सिनेमा के बढ़ते हुए प्रभाव के विरुद्ध हिन्दी रंगमंच के उद्धार द्वारा जीवन और साहित्य में सुरुचि का समावेश करना, रेडियो से हिन्दी एकांकियों की मांग, केन्द्रीय सरकार के शिक्षा-विभाग की ओर से आयोजित ‘यूथ फेस्टीवल’ में एकांकी नाटक का भी प्रतियोगिता का एक विषय होना, विश्वविद्यालयों में विशेष अवसरों पर एकांकी नाटकों का अभिनय आदि। इन सब कारणों के परिणामस्वरूप एकांकी नाटक आज एक प्रमुख साहित्यिक विधा बन गया है।

एकांकी ने नाटक से भिन्न अपना स्वतंत्र स्वरूप प्रतिष्ठित कर लिया है। एकांकी बड़े नाटक की अपेक्षा छोटा अवश्य होता है परन्तु वह उसका संक्षिप्त रूप नहीं है। बड़े नाटक में जीवन की विविधरूपता, अनेक पात्र, कथा का साँगोपांग विस्तार, चरित्र-चित्रण की विविधता, कुतूहल की अनिश्चित स्थिति, वर्णनात्मकता की अधिकता, चरम सीमा तक विकास तथा घटना-विस्तार आदि के कारण कथानक की गति मन्द होती है जबकि एकांकी में, इसके विपरीत, जीवन की एकरूपता, कथा में अनावश्यक विस्तार की उपेक्षा, चरित्र-चित्रण की तीव्र और संक्षिप्त रूप-रेखा, कुतूहल की स्थिति, प्रारम्भ से ही व्यंजकता की अधिकता और प्रभावशीलता, चरम सीमा तक निश्चित बिन्दु में केन्द्रीयकरण तथा घटना-न्यूनता आदि के कारण कथानक की गति क्षिप्र होती है सद्गुरुशरण अवस्थी का कथन है कि ‘जीवन की वास्तविकता के एक स्फुलिंग को पकड़कर एकांकीकार उसे ऐसा प्रभावपूर्ण बना देता है कि मानवता के समूचे भाव जगत् को झनझना देने की शक्ति उसमें आ जाती है।’’

ऐतिहासिक दृष्टि से हिन्दी-एकांकी के विकास-क्रम को निम्नलिखित प्रमुख काल-खण्डों में विभाजित किया जा सकता है:

(१) भारतेन्दु-द्विवेदी युग (1875-1928)

(२) प्रसाद-युग (1929-37)

(३) प्रसादोत्तर-युग (1938-47)

(४) स्वातंत्रयोत्तर-युग (1948 से अब तक)

वास्तव में प्रारम्भिक एकांकी-प्रयोगों में भी भटकती हुई नाटय-दृष्टि ही प्रमुखता से उभरकर सामने आई है किन्तु विकास की दृष्टि से उन्हें नकारा नहीं जा सकता।

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