कस्तूरी कुंडल बलै मृग बन माहि ( ऐसे घर में पीत है. दुनिया जाने महि ॥)
पंक्तियों का सरल अर्थ अपने शब्दों में लिखिए।
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इसमें कबीरदास जी कहते है कि हमें अपने मन का अहंकार त्याग कर ऐसी भाषा का प्रयोग करना चाहिए जिसमे हमारा अपना तन मन भी सवस्थ रहे और दूसरों को भी कोई कष्ट न हो अर्थात दूसरों को भी सुख प्राप्त हो। कस्तूरी कुंडली बसै ,मृग ढूँढै बन माँहि। ऐसैं घटि- घटि राँम है , दुनियां देखै नाँहिं।।
कृषक के अभावों की कोई सीमा नहीं है। परंतु वह संतोष रूपी धन के सहारे अपना जीवन व्यतीत कर रहा है। पूरे संसार में कैसा भी वसंत आए, कृषक के जीवन में सदैव पतझड़ ही बना रहता है।
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mujhe acchese dohe nahi padhne aate
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