कस्तूरी कुंडलि बसै, म्रिग ढूँढ़े बन माहिं।
ऐसे घटि घटि राम हैं, दुनियां देखै नांहिं ॥१५॥
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कस्तूरी कुण्डल बेस मृग ढूढ़त बन माहि |
ज्यों घट घट में राम हैं दुनिया देखत नाहि ।।
यह प्रसिद्ध दोहा कबीरदास जी का हैं |
अर्थ - जिस प्रकार एक कस्तूरी हिरण कस्तूरी की खुशबू को जंगल में ढूंढ़ता फिरता हैं जबकि वह सुगंध उसे उसकी ही अपनी नाभि में व्याप्त कस्तूरी से मिल रही होती है, परन्तु वह जान नहीं पाता, उसी प्रकार इस संसार के कण कण में भगवान विराजमान है परन्तु मनुष्य उसे मंदिर,मस्जिद, तीर्थो में ढूँढ़ता फिरता है |
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Q.1.- Kabirdas ke dohe notes
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