Kathputli ke Sthan per yadi aap Hote To apni Swatantrata ki ichcha ko kis Prakar vyakt karte?
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भारतीय संस्कृति का प्रतिबिंब लोककलाओं में झलकता है। इन्हीं लोककलाओं में कठपुतली कला भी शामिल है। यह देश की सांस्कृतिक धरोहर होने के साथ-साथ प्रचार-प्रसार का सशक्त माध्यम भी हैं, लेकिन आधुनिक सभ्यता के चलते मनोरंजन के नित नए साधन आने से सदियों पुरानी यह कला अब लुप्त होने के कगार पर है।
कठपुतली नाच की हर क़िस्म में पार्श्व से उस इलाके का संगीत बजता है, जहाँ का वह नाच होता है। कठपुतली नचाने वाला गीत गाता है और संवाद बोलता है। ज़ाहिर है, इन्हें न केवल हस्तकौशल दिखाना पड़ता है, बल्कि अच्छा गायक व संवाद अदाकार भी बनना पड़ता है।
भारत में कठपुतली नचाने की परंपरा काफ़ी पुरानी रही है। धागे से, दस्ताने द्वारा व छाया वाली कठपुतलियाँ काफ़ी प्रसिद्ध हैं और परंपरागत कठपुतली नर्तक स्थान-स्थान जाकर लोगों का मनोरंजन करते हैं। इनके विषय भी ऐतिहासिक प्रेम प्रसंगों व जनश्रुतियों के लिए जाने जाते हैं। इन कठपुतलियों से उस स्थान की चित्रकला, वस्तुकला, वेशभूषा और अलंकारी कलाओं का पता चलता है, जहाँ से वे आती हैं।
रीति-रिवाजों पर आधारित कठपुतली के प्रदर्शन में भी काफ़ी बदलाव आ गया है। अब यह खेल सड़कों, गली-कूचों में न होकर फ्लड लाइट्स की चकाचौंध में बड़े-बड़े मंचों पर होने लगा है
राजस्थान की कठपुतली काफ़ी प्रसिद्ध हैं। यहाँ धागे से बांधकर कठपुतली नचाई जाती हैं। लकड़ी और कपड़े से बनीं और मध्यकालीन राजस्थानी पोशाक पहने इन कठपुतलियों द्वारा इतिहास के प्रेम प्रसंग दर्शाए जाते हैं। अमरसिंह राठौर का चरित्र काफ़ी लोकप्रिय है, क्योंकि इसमें युद्ध और नृत्य दिखाने की भरपूर संभावनाएँ हैं। इसके साथ एक सीटी-जिसे बोली कहते हैं- जिससे तेज धुन बजाई जाती है, प्रयोग की जाती है।
कठपुतली की सबसे ख़ास बात यह है कि इसमें कई कलाओं का सम्मिश्रण है। इसमें लेखन कला, नाट्य कला, चित्रकला, मूर्तिकला, काष्ठकला, वस्त्र निर्माण कला, रूप सज्जा, संगीत, नृत्य जैसी कई कलाओं का इस्तेमाल होता है। इसीलिये सम्भवतः बेजान होने के बाद भी ये कठपुतलियाँ जिस समय अपनी पूरी साज सज्जा के साथ मंच पर उपस्थित होती हैं तो दर्शक पूरी तरह उनके साथ बंध जाता है।
उत्तर प्रदेश में सबसे पहले कठपुतलियों के माध्यम का इस्तेमाल शुरू हुआ था। शुरू में इनका इस्तेमाल प्राचीन काल के राजा महाराजाओं की कथाओं, धार्मिक, पौराणिक आख्यानों और राजनीतिक व्यंग्यों को प्रस्तुत करने के लिये किया जाता था। उत्तर प्रदेश से धीरे-धीरे इस कला का प्रसार दक्षिण भारत के साथ ही देश के अन्य भागों में भी हुआ।
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