कवि ने धरती को बंजर समझा क्योंकि
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कवि ने धरती को बंजर समझा क्योंकि
• ‘कोमलकान्त पदावली के गायक’, ‘प्रकृति के कुशल चितेरे’, ‘मानवता के आस्था वान शिल्पी’ ‘प्रकृति के सुकुमार कवि’ तथा छायावाद एवं प्रगतिवाद के उन्नायक कवि सुमित्रानंदन पंत ने अपनी ‘आ: धरती कितना देती है’ कविता में ‘रत्नप्रसविनी वसुधा’ की प्रजनन क्षमता का बड़ा ही सुन्दर चित्रण किया है और बचपन की नादानियों का जिक्र करते हुए हमें सही बीज बोने, परिश्रम के महत्व एवं इस शाश्वत सत्य से परिचित कराया है कि ‘जैसा बोएंँगे वैसा ही फल प्राप्त करेंगे ‘ अर्थात यदि हम स्वार्थ और लोभवश गलत बीज बोएंँगे तो हमें कुछ भी हासिल नहीं होगा पर यदि हम सही बीज बोएंँगे तो हमें सही फसल, सही तृप्ति एवं विशुद्ध आनंद मिलेगा।
• धरती रत्न प्रसविनी है क्योंकि वह रत्नों को जन्म देने वाली है परन्तु मनुष्य स्वार्थवश उसमें अपनी तृष्णा रोपता है और अपनी कामना को सींचता है। प्रस्तुत कविता में कवि ने अपने बचपन में लालच में आकर धरती में पैसे बो दिए। उस समय उसने सोचा था कि जिस तरह बीज बोने पर पौधा उगता है उसी तरह पैसे बोने से पैसों के प्यारे पौधे उग आएँगे। पैसे उगते नहीं हैं, इस बात से बालक अनजान था। पैसों के अंकुर नहीं फूटे। बालक को लगा कि धरती बंजर है । इसमें पैदा करने की कोई शक्ति नहीं है। कवि कहते हैं कि जब से उन्होंने पैसे बोए थे तब से लगभग आधी शताब्दी बीत गई है पर पैसों की फ़सल नहीं उगी। कई ऋतुएँ आईं और गईं पर बंजर धरती ने एक भी पैसा नहीं उगला। एक बार फिर से गहरे काले-काले बादल आसमान पर छाए और धरती को गीला कर दिया। मिट्टी नरम हो गई थी। कवि ने कौतूहल के वशीभूत होकर मिट्टी कुरेद कर घर के आँगन में सेम के बीज दबा दिए। कवि के शब्दों में –
• मैंने कौतूहलवश, आँगन के कोने की
गीली तह को यों ही उँगली से सहलाकर,
बीज सेम के दबा दिए मिट्टी के नीचे,
भू के अंचल में मणि-माणिक बाँध दिए हों।