(ख) 'बीती विभावरी जाग री' कविता के प्रकृति चित्रण से आपने क्या संदेश ग्रहण किया? टिप्पणी कीजिए।
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Answer:
"बीती विभावरी जाग री!
अम्बर-पनघट में डुबो रही-
तारा-घट ऊषा नागरी।"
कवि कहता है- 'रात बीत गई है सखी! अब जाग जा। देख उषा-काल में अरुणिम उषा की उज्ज्वलता के कारण तारें ऐसे विलीन हुए जाते हैं मानो कोई सुंदर रमणी(उषा रूपी) अपने घट को (ताराओं के) पनघट/सरोवर में (अम्बर रूपी) डुबो रही हो।' इस प्रकार कवि ने उषा के आगमन से अंधकार के तिरोहित हो जाने तथा तारकों के प्रकाश में विलीन होने की क्रिया को रमणी, घट और पनघट के रूपक से प्रकट किया है।
कवि आगे कहता है- 'सखी देख 'खग-कुल' अर्थात पक्षियों का समुदाय 'कुल-कुल' की मीठी आवाज निकाल रहा है। सुखद- शीतल मलयानिल के प्रवाह के कारण 'किसलय' अर्थात नव-पल्लवों(नई कोपलों) का समूह आँचल के समान डोल रहा है तथा यह देख, यह लता भी मधुमय सौरभ युक्त नव-कलिकाओं से भर कर रस की गागर के समान प्रतीत हो रही है।' हर तरफ चहल-पहल है, प्रभात का उत्सव है। कवि ने प्रभात कालीन वातावरण का अत्यन्त मनोरम चित्रण प्रस्तुत किया है। उसकी सौदर्यान्वेषी दृष्टि से कोई भी छोटी-बड़ी घटना बची नहीं है। प्रकृति के प्रत्येक स्पन्दन में सौंदर्य के दर्शन करते हुए कवि ने उसमें चेतना का आरोप करते हुए उसका मानवीकरण कर दिया है/
Explanation:
बीती विभावरी जाग री' कविता जयशंकर प्रसाद के काव्य संग्रह "लहर' से ली गई है। इस कविता में एक सखी दूसरी को संबोधित कर रही है कि रात बीत चुकी है और उसे प्रातःकाल के सौंदर्य का आनंद लेने के लिए कह रही है। वह कहती है कि सखी देख, रात बीत चुकी है और उषा रूपी स्त्री आकाश रूपी पनघट में तारा रूपी घड़े डुबो रही है अर्थात जिस प्रकार कोई स्त्री पनघट पर पानी भरने के लिए घड़े को डुबोती है, उसी प्रकार उषा की लाली से तारे छिपने लगे हैं, आकाश का आसमानी रंग दीखने लगा है।