Hindi, asked by sneha8216, 5 months ago

खा खाकर कुछ पाएगा नहीं, न खाकर बनेगा अहंकारी।
सम खा तभी होगा समभावी, खुलेगी साँकल बंद द्वार की।2। ​

Answers

Answered by khushikumari10
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Answer:

इस कथन के माध्यम से कवित्री कहना चाहती है कि सांसारिक भोगों से कुछ प्राप्त नहीं होता है। परंतु यदि सांसारिक भोग ना किया जाए तो मनुष्य अहंकारी बन जाता है। हमें सांसारिक भोग करते हुए भी एक साधु की भांति शांत रहना चाहिए । तभी मुक्ति के मार्ग खुलते हैं। और आत्मा परमात्मा में मिलती है।

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Answered by guptavandana0409
2

Answer:

अपनी इन पंक्तियों में कवयित्री कहती हैं कि अगर हम सांसारिक विषय-वासनाओं में डूबे रहेंगे, तो कभी भी हमें मोक्ष की प्राप्ति नहीं होगी। इसके विपरीत अगर हम सांसारिक मोह-माया को छोड़कर त्याग और तपस्या में लग जाएंगे, तो इससे भी हमें कुछ लाभ नहीं होगा। भोग का पूरी तरह से त्याग करने पर हममें अहंकार आ जाएगा, जिसकी वजह से हमें मुक्ति अर्थात ज्ञान की प्राप्ति नहीं होगी। इसी वजह से कवयित्री के अनुसार, दोनों रास्ते ही गलत हैं।

जब हम सांसारिक भोग-लिप्सा में तृप्त रहते हैं, तब तो हम सच्चे ज्ञान से दूर रहते ही हैं, इसके विपरीत जब हम त्याग और तपस्या में लीन हो जाते हैं, तब हमारे अंदर अहंकार रूपी अज्ञान आ जाता है, जिसके द्वारा हम सच्चे ज्ञान की प्राप्ति नहीं कर पाते। इसीलिए कवयित्री हमें बीच का मार्ग अपनाने के लिए कह रही है। जिससे हमारे अंदर वासना और भोग-लिप्सा भी नहीं होगी और न ही अहंकार हमारे अंदर पनप पाएगा। तभी हमारे अंदर समानता की भावना रह पाएगी। इसके बाद ही हम प्रभु की भक्ति में सच्चे मन से लीन हो सकते हैं।

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