खोलता इधर जन्म लोचन मुंदती उधर मृत्यु क्षण-क्षण
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सावित्रीबाई ने शिक्षक प्रशिक्षण पाठ्यक्रम पूरा किया और 1847 में एक योग्य शिक्षक बन गईं। दंपति ने तब 1848 में पुणे शहर के भिडेवाड़ा में लड़कियों के लिए एक स्कूल की शुरुआत की और सावित्रीबाई इसकी पहली शिक्षक बनीं।
:प्रसंग -प्रस्तुत पंक्तियाँ पन्त जी की प्रसिद्ध कविता 'परिवर्तन' से है ।
इन पंक्तियों में कवि ने जीवन की सतत् गतिशीलता पर अपने विचार प्रकट करते हुए यह स्पष्ट किया है कि जन्म और मरण का चक्र पलकों के उत्थान-पतन जैसा ही है।
व्याख्या - इधर जन्म अपनी आँखें खोलता है और उधर मृत्यु उन आँखों को क्षण-क्षण मूँदती रहती है अर्थात् जन्म और मृत्यु जीवन के शाश्वत धर्म हैं। जिसने जन्म लिया है, उसकी मृत्यु अवश्यम्भावी है बल्कि यों कहना चाहिए कि जन्म का पर्यावसान मृत्यु में ही होता है। जो जीवन अभी थोड़ी देर पहले उत्सवों में आनन्द ले रहा था, हँस रहा था और प्रसन्न हो रहा था, उसी में अब दुःख, आँसू और निराशा आ गई है।ऐसा प्रतीत होता है कि जगत् की नश्वरता देखकर वायु स्वयं ही शून्यता-भरी निःश्वासें ले रही हो और ओस के बहाने नीला आकाश पत्तों पर चुपचाप आँसू गिरा रहा हो ।
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