(ख) निंदा का उदगम ही हीनता और कमजोरी से होता है। मनुष्य अपनी हीनता से दबता है। वह दूसर
ऐसा अनुभव करता है कि वह सब निकृष्ट हैं और वह उनसे अच्छा है। उसके अहं की इससे तुष्टि होत
कुछ
मिटा कर छोटी लकीर बड़ी बनती है। ज्यों-ज्यों कर्म क्षीण होता जाता है.त्या-स्वी निंदा
जाती है ।कठिन कर्म ही ईर्ष्या- दवेष और इनसे उत्पन्न निदा को मारता है। इंट बड़ा ईयोतु माना
वह निठल्ला है। स्वर्ग में देवताओं को बिना उगाया अन्न बेबनाया महल और बिना बोए फल मिलते
में उन्हें अप्रतिष्ठित होने का भय बना रहता है. इसलिए कमी मनुष्य से उन्हें ईर्ष्या होती है।
कभी-कभी ऐसा भी होता है कि हममें जो करने की क्षमता नहीं है वह यदि कोई और करता है तो ह
अहं को धक्का लगता है, हममें हीनता और ग्लानि आती है.तब हम उसकी निंदा करके उससे अपने ना
समझकर तुष्ट होते |बड़ा रस है न निंदा में? सूरदास ने इसीलिए इसे निंदा सबद रसाल कहा है।
उपर्युक्त गदयाश को पढ़कर नीचे लिखे गए प्रश्नों के उत्तर के सही विकल्प छोटकर विखिए-
(अ) लद्दाखनिंदा का उद्गम होता है-
(१) ईर्ष्या और वेष से ,
()हिंसा और कमजोरी से
(3) अकर्मण्यता और आलस्य से (४)पृणा एवं शत्रुता
से
(आ) निंदा से व्यक्ति प्राप्त करता है-
(१) अहं की तुष्टि
(२) आत्मसंतुष्टि
(३) मिथ्या प्रसन्नता
(४) स्वय की उच्चता
(इ) ईर्ष्या वेष से उत्पन्न निदा समाप्त हो सकती है-
(१) शिक्षा से
(२) अनुभव से
(३( कठिन कर्म से।
(४) अह को मारने से
(ई) लेखक के अनुसार सबसे बड़ा ईर्ष्यालु है-
(१)इंद्रा
(२) अकर्मण्य मनुष्य
(३)अहंवादी व्यक्ति
(४)अक्षम व्यक्ति
(उ) 'निदा सबद रसाल किसने कहा है।
(१)तुलसीदास ने
(२) कबीर दास ने
(३)रहीम दास ने
४) सूरदास
ने
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