Khilafat andolan par sankhsep mein timpani likhye
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Khilafat Movement (March 1919 – January 1921) A Khilafat Committee was formed in Bombay in March 1919. Several Muslim leaders, along with Mohammed Ali and Shaukat Ali brothers, began discussions with Mahatma Gandhi to explore the possibility of joint public action on the issue. At the Kolkata session of the Congress in September 1920, Mahatma Gandhi also convinced other leaders that a non-cooperation movement should be started for the support of the Khilafat movement and for Swaraj. This movement ended in January 1921.
History
In 1908 AD , the elimination of the dominance of the powerless caliphate in Turkey by the young Ottoman contingent was the first phase of the abolition of the Caliphate (post of Caliph). This had a negligible impact on the Indian Muslim people. But, in 1912, in the Turkish-Italian and Balkan Wars, the opposition of Turkey, Britain 's contribution to the attack on the Islamic culture and all Islamism, the Indian Muslims became excited towards Britain. This protest turned into a rage against British rule in India. This excitement was given a wider scope by Abul Kalaam Azad , Zafar Ali Khan and Mohammad Ali in their newspapers Al-Hilal, Zamindar and Comrades and Hamdard.
Britain's invasion of Turkey in the First World War ignited discontent. The repression of the government agitated it even more. Coordination of national sentiment and Muslim religious dissatisfaction began. After the end of the Great War, India received the Rowlatt Bill, Damanchakra , and the Jallianwala Bagh massacre in exchange for political rights , which added fuel to the national spirit. The All India Khilafat Committee organized the Khilafat Movement in collaboration with Jamiat-ul-Ulema and Mohammad Ali circulated the Khilafat Declaration in 1920. Gandhi led the national movement . Movement against the influence of Gandhiji and non-cooperation movementUniformed. By May 1920, the Khilafat Committee supported the non-violent non-cooperation scheme of Mahatma Gandhi. In September, the special session of the Congress declared two objectives of the Non-Cooperation Movement - acceptance of demands for Swaraj and Khilafat. When in Turkey in November 1922, Mustafa Commalpasha the Sultan Caliph Mehmed VI remover to the Abdul Majid Afndi be sitting and then hijacked all his political rights caliphate Committee sent a delegation to Turkey for Virodpradrshn in 1924. The nationalist Mustafa Kamal completely ignored him and on 3 March 1924, he abolished the post of Khalifa and ended the Khilafat. Thus, the movement against India also ended on its own.
Reason
There are two approaches to why Gandhi launched the Khilafat movement in 1920-21: -
One section maintained that Gandhi's above strategy was an example of a practical opportunistic alliance. They had understood that it is now financially costly for the British to rule in India. Now they do not need that much of our raw materials. Synthetic products are now being made. They have taken what the British had to take from India. Now they will go. Therefore, if peacefully non-cooperation movement is launched, Satyagraha movement is carried out, then they will leave soon. Hindu-Muslim unity is necessary for this. On the other hand, the British did the trick to break this political alliance.
There is also a second approach. He believes that Gandhi recognized the traditional form of Islam. They had seen the natural basis of Hindu-Muslim unity, bypassing the upper cover of religion. Hindu-Muslims had learned coexistence from 12th century onwards. The domineering people were in both communities. But even then, common Hindus and Muslims considered traditional life philosophy, there was a common heritage among them. There was a quarrel between them but there was also civilizational unity. On the other hand there is a civilizational struggle from the modern West. Gandhi also knew that one who does not participate in this satanic civilization consciously, will be lagging behind in modern terms, but will be called as a traditionally situated Pragya.
Answer:
सन् 1908 ई. में तुर्की में युवा तुर्क दल द्वारा शक्तिहीन ख़लीफ़ा के प्रभुत्व का उन्मूलन ख़लीफ़त (ख़लीफ़ा के पद) की समाप्ति का प्रथम चरण था। इसका भारतीय मुसलमान जनता पर नगण्य प्रभाव पड़ा। किंतु, 1912 में तुर्की-इतालवी तथा बाल्कन युद्धों में, तुर्की के विपक्ष में, ब्रिटेन के योगदान को इस्लामी संस्कृति तथा सर्व इस्लामवाद पर प्रहार समझकर भारतीय मुसलमान ब्रिटेन के प्रति उत्तेजित हो उठे। यह विरोध भारत में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध रोषरूप में परिवर्तित हो गया। इस उत्तेजना को अबुलकलाम आज़ाद, ज़फ़र अली ख़ाँ तथा मोहम्मद अली ने अपने समाचारपत्रों अल-हिलाल, जमींदार तथा कामरेड और हमदर्द द्वारा बड़ा व्यापक रूप दिया।
प्रथम महायुद्ध में तुर्की पर ब्रिटेन के आक्रमण ने असंतोष को प्रज्वलित किया। सरकार की दमननीति ने इसे और भी उत्तेजित किया। राष्ट्रीय भावना तथा मुस्लिम धार्मिक असंतोष का समन्वय आरंभ हुआ। महायुद्ध की समाप्ति के बाद राजनीतिक स्वत्वों के बदले भारत को रौलट बिल, दमनचक्र, तथा जलियानवाला बाग हत्याकांड मिले, जिसने राष्ट्रीय भावना में आग में घी का काम किया। अखिल भारतीय ख़िलाफ़त कमेटी ने जमियतउल्-उलेमा के सहयोग से ख़िलाफ़त आंदोलन का संगठन किया तथा मोहम्मद अली ने 1920 में ख़िलाफ़त घोषणापत्र प्रसारित किया। राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व गांधी जी ने ग्रहण किया। गांधी जी के प्रभाव से ख़िलाफ़त आंदोलन तथा असहयोग आंदोलन एकरूप हो गए। मई, 1920 तक ख़िलाफ़त कमेटी ने महात्मा गांधी की अहिंसात्मक असहयोग योजना का समर्थन किया। सितंबर में कांग्रेस के विशेष अधिवेशन ने असहयोग आंदोलन के दो ध्येय घोषित किए - स्वराज्य तथा ख़िलाफ़त की माँगों की स्वीकृति। जब नवंबर, 1922 में तुर्की में मुस्तफ़ा कमालपाशा ने सुल्तान ख़लीफ़ा महमद षष्ठ को पदच्युत कर अब्दुल मजीद आफ़ंदी को पदासीन किया और उसके समस्त राजनीतिक अधिकार अपहृत कर लिए तब ख़िलाफ़त कमेटी ने 1924 में विरोधप्रदर्शन के लिए एक प्रतिनिधिमंडल तुर्की भेजा। राष्ट्रीयतावादी मुस्तफ़ा कमाल ने उसकी सर्वथा उपेक्षा की और 3 मार्च 1924 को उन्होंने ख़लीफ़ी का पद समाप्त कर ख़िलाफ़त का अंत कर दिया। इस प्रकार, भारत का ख़िलाफ़त आंदोलन भी अपने आप समाप्त हो गया।
गांधी ने 1920-21 में ख़िलाफ़त आंदोलन क्यों चलाया, इसके दो दृष्टिकोण हैं:-
एक वर्ग का कहना था कि गांधी की उपरोक्त रणनीति व्यवहारिक अवसरवादी गठबंधन का उदाहरण था। वे समझ चुके थे कि अब भारत में शासन करना अंग्रेज़ों के लिए आर्थिक रूप से महंगा पड़ रहा है। अब उन्हें हमारे कच्चे माल की उतनी आवश्यकता नहीं है। अब सिन्थेटिक उत्पादन बनाने लगे हैं। अंग्रेज़ों को भारत से जो लेना था वे ले चुके हैं। अब वे जायेंगे। अत: अगर शांति पूर्वक असहयोग आंदोलन चलाया जाए, सत्याग्रह आंदोलन चलाया जाए तो वे जल्दी चले जाएंगे। इसके लिए हिन्दू-मुस्लिम एकता आवश्यक है। दूसरी ओर अंग्रेज़ों ने इस राजनीतिक गठबंधन को तोड़ने की चाल चली।
एक दूसरा दृष्टिकोण भी है। वह मानता है कि गांधी ने इस्लाम के पारम्परिक स्वरूप को पहचाना था। धर्म के ऊपरी आवरण को दरकिनार करके उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता के स्वभाविक आधार को देख लिया था। 12वीं शताब्दी से साथ रहते रहते हिन्दु-मुसलमान सह-अस्तित्व सीख चुके थे। दबंग लोग दोनों समुदायों में थे। लेकिन फिर भी आम हिन्द-मुसलमान पारम्परिक जीवन दर्शन मानते थे, उनके बीच एक साझी विराजत भी थी। उनके बीच आपसी झगड़ा था लेकिन सभ्यतामूलक एकता भी थी। दूसरी ओर आधुनिक पश्चिम से सभ्यतामूलक संघर्ष है। गांधी यह भी जानते थे कि जो इस शैतानी सभ्यता में समझ-बूझकर भागीदारी नहीं करेगा वह आधुनिक दृष्टि से भले ही पिछड़ जाएगा लेकिन पारम्परिक दृष्टि से स्थितप्रज्ञ कहलायेगा।
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