kismat ki fati chadar ka koi rafugar nahi lekhak ne yasa kyu kha hai vakhya
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kyonki
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kismat ko ham khud badalte hain hamari kismat koi Nahi badalta
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हर साल नई नथुनी उतारने वाले मुन्शी जी को गाँव-वार के लोग भी अपनी नजरों से उतारने लगे। जो मुन्शी जी चुल्लू-के-चुल्लू इत्र लेकर अपनी पोशाकों में मला करते थे, उन्हीं को अब अपनी रूखी-भूखी देह में लगाने के लिए चुल्लू भर कड़वा तेल मिलना भी मुहाल हो गया। शायद किस्मत की फटी चादर का कोई रफूगर नहीं है।
जैसा ऊपर वाले पैराग्राफ में देख सकते है जब मुंशी जी अमीर हुआ करते थे जब वह रोज बहुत सारा इत्र अपनी पोशाकों में लगते थे लेकिन जब अभी गरीब हो गए है तो कड़वा तेल भी नसीब नहीं हो रहा है, इसलिए ही लेखक जी ने "किस्मत की फटी चादर का कोई रफूगर नहीं है" कहा है।
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