Kisne our kiu mirabai ke pass bis ka pyala bheja?
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मीराबाई मेड़ता (जोधपुर ) के राठौड़ रतनसिंह जी की इकलौती पुत्री और राव दूदाजी की पोती थीं | मीराजी का जन्म कुड़की गाँव में सन् १४९८ ई. और १५०३ ई. के बीच हुआ था | एक दिन इनके पड़ोस में किसी बड़े आदमी के यहाँ बारात आई थी | तब यह ३ या ४ वर्ष की थीं | सब स्त्रियाँ छ्त पर बारात देखने चढ़ गयीं | यह अपनी माता के पास गयीं और पूछने लगीं कि मेरा दूल्हा कौन है ? इनकी माता ने गिरधारीलाल की तरफ इशारा किया जो उन दिनों महल में विराजते थे , और कहा कि -”तुम्हारा दूल्हा यह है |”
यह बात इन्होने ऐसे गाँठ बाँध ली कि गिरधारीलाल जी के दर्शन के बिना एक पल भी व्यतीत नहीं करतीं थीं ( बच्चे का मन बड़ा ही संवेदनशील होता है , बड़ी जल्दी कोई भी बात पकड़ लेता है , कितना अच्छा हो कि माता पिता कच्ची मिट्टी में ऐसे बीज रोपें कि दम तोड़ती हमारी वसुंधरा फिर से हरी भरी होकर लहलहा उठे )
मीरा की ऎसी भक्ति और लगन देखकर इनके माता पिता ने इनका विवाह मेवाड़ के सिसोदिया राजकुल में महाराणा सांगा के बड़े पुत्र भोजराज के साथ कर दिया | जब भंवरें पड़तीं थीं तब यह मन में अपना विवाह कृष्ण कन्हैया जी से करतीं थीं और अंत में रोते रोते बेहोश हो गयीं | विदाई के समय इन्होने गिरधारीलाल जी को मांग लिया और उन्हें खटोले में बैठा कर रोते रोते ससुराल पहुँच गयीं | वहां जब इनकी सास ने दुर्गा पूजन के लिए कहा तो इन्होने मना कर दिया यह कहकर कि कृष्ण कन्हैया के सिवाय किसी के आगे सर नहीं झुकायेंगी |
सास को बहुत गुस्सा आया , वह बहुत क्रोध में राणा के पास गयीं पर यह न मानीं | लज्जा और परंपरा को त्याग कर इन्होने अनूठे प्रेम और भक्ति का परिचय दिया | विवाह के दस बरस बाद इनके पति का देहांत हो गया | कुंवर भोजराज इनके पति थे | वह कभी राजगद्दी पर नहीं बैठे | यह अपने पति के साथ बड़े प्रेम से रहीं और कभी उन्हें नाखुश नहीं किया पर भगवत् भजन में इनका ज्यादा मन लगता था | इनके देवर राणा विक्रमजीत को इनके यहाँ साधु संतों का आना जाना बुरा लगता था इसलिए उन्होंने चंपा और चमेली नाम की दो औरतों को इनकी निगरानी के लिए भेजा | वह भी भक्ति के रंग में रंग गयीं | तब उन्होंने अपनी बहन ऊदा बाई को यह काम सौंपा |
वह बहुत समझातीं कि ”भाभी यह साधुओं और बैरागियों का संग छोड़ दो , आप बड़े कुल की बेटी हो कुछ तो मर्यादा का ख्याल करो |’ पर इन पर कोई असर नहीं हुआ | तब राणा ने विष का कटोरा अमृत के नाम से इनके पास भेजा | ऊदा बाई ने बता दिया फिर भी इन्होने कहा कि जो प्रसाद भगवान् की भक्ति के नाम से आया है , उसका त्याग करना अपराध है | सब लोग आश्चर्य से देख रहे थे और इन्होने वह प्याला पी लिया और भजन गाने लगीं | इनके मुख का तेज बढ़ता ही जा रहा था | कोई कहता है कि इस विष से मीराजी ने प्राण त्याग दिए | कोई कहता है कि इसका उल्टा असर हुआ और वह भगवत् प्रेम में दूनी रम गयीं |
कोई यह भी कहता है कि विष का असर द्वारका में रणछोड़जी की मूर्ती पर पड़ा जिसके मुंह से झाग निकलने लगे | कहा जाता है कि एक दिन एक सांप को पिटारे में बंद करके राणा ने इनके पास पूजा के फूल कहकर भेजा | जब मीरा ने पिटारा खोला तो सालिग्राम की मूर्ति और सुगन्धित हार निकले | कुछ दिन बाद वह वृन्दावन आ गयीं | वहां राणा के नगर पर विपत्तियाँ आने लगीं | साधु लोग आकर विनती करने लगे कि लौट चलो | मीरा ने कहा कि मेरा निवास द्वारका में रणछोड़ जी की कृपा से हुआ है इसलिए मैं नहीं जाउंगी | कहा जाता है कि जो साडी वो पहने थीं अंत में वही भगवत् के अंग पर थी |उसके बाद किसी ने इन्हें नहीं देखा | वह रणछोड़ जी में समा गयीं |
तुलसीदास जी सन् १५३३ ई में पैदा हुए थे | मीरा बाई ने सन् १५६३ और १५७३ ई के बीच शरीर का त्याग किया था |
देहांत का ठीक समय मालूम नहीं है | इनके पद पढ़ कर यह ज्ञात होता है कि तुलसीदास जी से इनका पत्र व्यवहार था और इनकी भक्ति की प्रशंसा सुनकर अकबर भी तानसेन के साथ इनके दर्शन को गया था | अकबर सन् १५४२ ई में पैदा हुए थे और सन् १५५६ में तख्त पर बैठे थे | इसलिए इनके देहांत का अनुमान लगाया जा सकता है |
नरसी जी का मायरा , रामगोविंद , राग सोरठ , गीत गोविन्द की टीका —यह चार ग्रन्थ इनके रचे हुए हैं |
मीराबाई की बानी और वचनों की बहुत दुर्दशा हुई है | एक के बाद एक तीन देवर इनके पति की मृत्यु के बाद गद्दी पर बैठे और जिन्हें की इनकी साधू संगति पसंद नहीं थी | प्रेम और भक्ति से भरपूर ह्रदय वाली महिला कैसे अपने पति को कुछ बुरा भला कह सकती हैं |