kuteki atmaktha hindi
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एक सुहानी बसंत, हवा में ठंडक के साथ थोड़ी मदहोशी छाई थी। धूप में भी हलकी-हलकी तपसी साथ थोड़ी-थोड़ी सी सुकोमलता थी। जो शारीर में मधुर अलसाया पन भर रही थी। कोमल अंकुरों का निकलना, पुराने के विछोह मे नए का पदार्पण, जीवन मे कोमलता के साथ सजीवता फैलती जा रही था। पेड़ो की बल खाती टहनियाँ, उन पर निकले नए कोमल चमकदार रंग बिरंगे पत्ते, चारों तरफ़ सौन्दर्य बिखेर रहे थे । उन सुहावने १४ वसंतों को आज याद करना मानो जीवन के उस तल को छूना आज मीलों लम्बा ही नहीं, अथाह गहरा भी लग रहा हैं । ये १४ वर्ष मात्र वर्ष ही नहीं, जीवन के उस अनन्त छोर को छू लेने जैसा लगता है, जो युगों पीछे छुट गये हो। मन मे पीछे जाना, जीवन चित्रों को उलटे चलते देखना, समझना, कितना दुष्कर और असाध्य काम है। वर्तमान समय का हिस्सा नहीं है, वो तो शाश्वत का हिस्सा है। बीतने वाला भी कल, जो आएगा वो भी कल वो ही काल समय है। उसी समय ने मनुष्य के मन को ऐसे जकड़ा है कि वो उसमें लाख छटपटाता जरूर है, परंतु शायद वो उससे निकलना ही नहीं चाहता है। वो उसके अन्दर गहरी खामोश निंद्रा में सोया रहना सुखकर समझता है। इस लिए वो परिर्वतन से ही समय कि गति को देखता रहता है, जहाँ चीज़ें धीरे बदलती है वहाँ समय धीरे चलता प्रतीत होता है, क्या वही अनंत मे काल, प्राणी में वही सापेक्ष समय नहीं बनता? परंतु कहाँ समय की सीमा काल कहलाती है, ये अभी भी दु विद्या भरा प्रश्न है, शायद कभी खोजा जा सके ।
फिर प्रत्येक प्राणी का समय और काल भी भिन्न है। जड़, चेतन, अनंत आकाश मे फैले विस्तार, या प्राणी मे पेड़, पौधे, कीड़े-मकोड़े, या कुत्ता, बिल्ली, .....या मनुष्य । अब मनुष्य प्राणी यों मे सर्वोपरि है तो वही ग्रह नक्षत्रों में काल की गणना करता है। सौ हम इस पचडे मे नें पड़ कर सीधा मनुष्य के ही समय को ही जीवन का केन्द्र मान लेते है। शहर की भागम-भाग या गाँव मे सरकती-घिसटती जिन्दगी मे घडी की टक-टक पर तो समय की लय लगेगी एक जैसी ही, परन्तु मनुष्य की जीवन चर्या के फैलने में एक नहीं लगेगी। मैं तो बस इतना समझ पाया परिर्वतन ही हमे, भागते समय का एहसास दिला रहा है। जहाँ चीजें तेजी से बदलेगी वहाँ समय कि गति तेज लगेगी, ये गति प्रत्येक प्राणी अचेतन की गति पर निर्धारित होगी या फिर आइंस्टाइन का सापेक्षवाद से, मनुष्य के चित का चेतन-अचेतन भी उन्हे नियन्त्रण या प्रभावित करता है। मोटे हिसाब से मनुष्य का एक दिन हमारा एक हफ्ते के समान होगा ।
मनुष्य के संग रह कर अच्छाई यों के साथ कुछ बुराई या भी सीखी, उन्ही में से कुछ अच्छी बुरी यादों को लिखने की कोशिश करुंगा। इससे पहले भी हम पर अनेक कथा-उपकथा लिखी गई, महाभारत काल में युधिष्ठिर के साथ हिमालय पार कर स्वर्ग जाना, या एकलवय की बाण कथा । खलील जिब्राहिम कि कहानी हमारी जाती का उपनिषद समझो। अब कहते भी बडा अजीब लगता है, मेरी जाती के मुझे घमंडी अवश्य समझेंगे की मैं भी कैसी शेखी मार रहा हुं, वरना जब ठन्डी होती तो आग के पास बठना, गर्मी मे पंखे के नीचे सोना कितना भला लगता, कमरे के बहार गर्मी मे इन बालों के कारण कितना हांफ जाता था, जीभ से लार गिरा कर बेहाल हो शरीर को ठंडा करने की कोशिश करता था । भगवान ने पूरे शरीर में जीभ और नाक पर ही रोम छिद्र बनाये है। जो हवा के स्पर्श से शरीर के ताप को नियंत्रण करते है। क्यों बालों का ये लबादा हमारे उपर पहनाया, यह सब मेरी समझ मे नहीं आया था। लेकिन जब बहार झांक कर देखा तो समझा कि सभी कुत्ते मेरे जेसे भाग्यवान नहीं होते ? हजारों मेरे भाई बहन ऐसे भी होगें जो खाने के एक-एक टुकडे के लिए गली-गली मारे फिरते होगें। नहाना क्या बरसाती पानी मे भीगना समझो वो भी कभी-कभी, जब कहीं छुपने की जगह नही मिल पाती होगी। तो वो कैसे कूड़े के ढेर में कुंडली मार कर सो जाते है। कैसी कूड़े की घिनौना गंध आती होगी उनके शरीर से। साबुन, शैंम्पुी उन बिचारों के भाग्य मे कहाँ लिखा है। गंदे कीचड़ मे लेट कर अपनी गर्मी मिटाते होगें कैसे कीचड़ की बू के साथ-साथ उनके शरीर से कीड़े चिपट जाते होगें, कितना दर्द होता होगा जब वो चिचड़ी लगातार उनका खून पीते होगें। परंतु में ये सब क्योंा सोच पा रहा हूं क्योंकि मेरी इनसे दुरी है पर मैं ये सब भी किसी दूसरे पर आसरित हूं मैं मोहताज हूं । जब कभी बहार निकलते ही कोई साथी भाई टकरा जाता और उसकी दबी पूंछ के नीचे अपनी चिर परिचित सूंघने की आदत से पास जाता तो कैसी दम घोटू बदबू आती थी। अब ये सूँघने की पुश्तैनी आदत के बारे में न ही पूँछों तो अच्छा है, फिर आप कहो गे भई छुपा लिया महान बनने के लिए, अव कोई लिखे कपड़े तो कोई हजारों मे एक देगा मगर ये चमड़ा फाड़ कर कोई विरला ही दिखा पाएगा चलो ये काम भी हम किए देते है। 'सब हमारा नाम गाली की तरह, कुत्ता है, मै तेरा खून पी जाउँगा कुत्ते कमीन, सब कुत्तों पंचायत बुलाई राजा के दरबार पहुँच गए सब कुत्तों ने हाथ जोड़ राजा से अपने उपर लगे इस तोहमत को गलत बताया, महाराज हम कितने वफ़ा दार है, जब आपके सिपाही भी सजाते है हम जी जान से नगर का चौकीदार करते उसके बदले हमें पत्थर, लकड़ी से मारा जाता है, गालियां के साथ दुत्कार मिलती है। इतना वफ़ा दार आपके राज्य मे कोई है,वो भी बिना किसी लोभ लालच के, महाराज न्याय चाहिए 'कुत्ते की मोत मरेगा' जैसे अपशब्द बोले जाते है, मृत्यु को भी अपमानित किया जाता है, आपके राज मै, सभी कुत्तों की आँखो में आँसू भर आए राजा भी भावविभोर हो गया। अब
तुम्हारे साथ अन्याय नहीं होगा, मैं एक प्रोनोट लिख तुम्हें दे देता हुँ, तुम इसे जंगल के राजा शेर को दिखा देना अपने जिस पर सब हमारा मज़ाक उड़ाते रहने पर आदत तो आदत है, उसे छोड़ना इतना आसान नहीं मनुष्य खुद करोड़ो आदतों का गुलाम है जन्मों-जन्मों से, क्या इतना आसान है छोड़ना जितना हँसना आसान है। बरसात मे कहाँ छुपते होंगे बिचारे मुझे बरसात मे भीग नें
फिर प्रत्येक प्राणी का समय और काल भी भिन्न है। जड़, चेतन, अनंत आकाश मे फैले विस्तार, या प्राणी मे पेड़, पौधे, कीड़े-मकोड़े, या कुत्ता, बिल्ली, .....या मनुष्य । अब मनुष्य प्राणी यों मे सर्वोपरि है तो वही ग्रह नक्षत्रों में काल की गणना करता है। सौ हम इस पचडे मे नें पड़ कर सीधा मनुष्य के ही समय को ही जीवन का केन्द्र मान लेते है। शहर की भागम-भाग या गाँव मे सरकती-घिसटती जिन्दगी मे घडी की टक-टक पर तो समय की लय लगेगी एक जैसी ही, परन्तु मनुष्य की जीवन चर्या के फैलने में एक नहीं लगेगी। मैं तो बस इतना समझ पाया परिर्वतन ही हमे, भागते समय का एहसास दिला रहा है। जहाँ चीजें तेजी से बदलेगी वहाँ समय कि गति तेज लगेगी, ये गति प्रत्येक प्राणी अचेतन की गति पर निर्धारित होगी या फिर आइंस्टाइन का सापेक्षवाद से, मनुष्य के चित का चेतन-अचेतन भी उन्हे नियन्त्रण या प्रभावित करता है। मोटे हिसाब से मनुष्य का एक दिन हमारा एक हफ्ते के समान होगा ।
मनुष्य के संग रह कर अच्छाई यों के साथ कुछ बुराई या भी सीखी, उन्ही में से कुछ अच्छी बुरी यादों को लिखने की कोशिश करुंगा। इससे पहले भी हम पर अनेक कथा-उपकथा लिखी गई, महाभारत काल में युधिष्ठिर के साथ हिमालय पार कर स्वर्ग जाना, या एकलवय की बाण कथा । खलील जिब्राहिम कि कहानी हमारी जाती का उपनिषद समझो। अब कहते भी बडा अजीब लगता है, मेरी जाती के मुझे घमंडी अवश्य समझेंगे की मैं भी कैसी शेखी मार रहा हुं, वरना जब ठन्डी होती तो आग के पास बठना, गर्मी मे पंखे के नीचे सोना कितना भला लगता, कमरे के बहार गर्मी मे इन बालों के कारण कितना हांफ जाता था, जीभ से लार गिरा कर बेहाल हो शरीर को ठंडा करने की कोशिश करता था । भगवान ने पूरे शरीर में जीभ और नाक पर ही रोम छिद्र बनाये है। जो हवा के स्पर्श से शरीर के ताप को नियंत्रण करते है। क्यों बालों का ये लबादा हमारे उपर पहनाया, यह सब मेरी समझ मे नहीं आया था। लेकिन जब बहार झांक कर देखा तो समझा कि सभी कुत्ते मेरे जेसे भाग्यवान नहीं होते ? हजारों मेरे भाई बहन ऐसे भी होगें जो खाने के एक-एक टुकडे के लिए गली-गली मारे फिरते होगें। नहाना क्या बरसाती पानी मे भीगना समझो वो भी कभी-कभी, जब कहीं छुपने की जगह नही मिल पाती होगी। तो वो कैसे कूड़े के ढेर में कुंडली मार कर सो जाते है। कैसी कूड़े की घिनौना गंध आती होगी उनके शरीर से। साबुन, शैंम्पुी उन बिचारों के भाग्य मे कहाँ लिखा है। गंदे कीचड़ मे लेट कर अपनी गर्मी मिटाते होगें कैसे कीचड़ की बू के साथ-साथ उनके शरीर से कीड़े चिपट जाते होगें, कितना दर्द होता होगा जब वो चिचड़ी लगातार उनका खून पीते होगें। परंतु में ये सब क्योंा सोच पा रहा हूं क्योंकि मेरी इनसे दुरी है पर मैं ये सब भी किसी दूसरे पर आसरित हूं मैं मोहताज हूं । जब कभी बहार निकलते ही कोई साथी भाई टकरा जाता और उसकी दबी पूंछ के नीचे अपनी चिर परिचित सूंघने की आदत से पास जाता तो कैसी दम घोटू बदबू आती थी। अब ये सूँघने की पुश्तैनी आदत के बारे में न ही पूँछों तो अच्छा है, फिर आप कहो गे भई छुपा लिया महान बनने के लिए, अव कोई लिखे कपड़े तो कोई हजारों मे एक देगा मगर ये चमड़ा फाड़ कर कोई विरला ही दिखा पाएगा चलो ये काम भी हम किए देते है। 'सब हमारा नाम गाली की तरह, कुत्ता है, मै तेरा खून पी जाउँगा कुत्ते कमीन, सब कुत्तों पंचायत बुलाई राजा के दरबार पहुँच गए सब कुत्तों ने हाथ जोड़ राजा से अपने उपर लगे इस तोहमत को गलत बताया, महाराज हम कितने वफ़ा दार है, जब आपके सिपाही भी सजाते है हम जी जान से नगर का चौकीदार करते उसके बदले हमें पत्थर, लकड़ी से मारा जाता है, गालियां के साथ दुत्कार मिलती है। इतना वफ़ा दार आपके राज्य मे कोई है,वो भी बिना किसी लोभ लालच के, महाराज न्याय चाहिए 'कुत्ते की मोत मरेगा' जैसे अपशब्द बोले जाते है, मृत्यु को भी अपमानित किया जाता है, आपके राज मै, सभी कुत्तों की आँखो में आँसू भर आए राजा भी भावविभोर हो गया। अब
तुम्हारे साथ अन्याय नहीं होगा, मैं एक प्रोनोट लिख तुम्हें दे देता हुँ, तुम इसे जंगल के राजा शेर को दिखा देना अपने जिस पर सब हमारा मज़ाक उड़ाते रहने पर आदत तो आदत है, उसे छोड़ना इतना आसान नहीं मनुष्य खुद करोड़ो आदतों का गुलाम है जन्मों-जन्मों से, क्या इतना आसान है छोड़ना जितना हँसना आसान है। बरसात मे कहाँ छुपते होंगे बिचारे मुझे बरसात मे भीग नें
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