kutra daridrata na bhavet?
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दरिद्रता के (कु)परिणाम – संस्कृत नाट्य ‘मृच्छकटिकम्’ में चारुदत्त के नैराश्य की अभिव्यक्ति
योगेन्द्र जोशी योगेन्द्र जोशी
8 वर्ष पहले
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‘मृच्छकटिकम्’ संस्कृत साहित्य की एक चर्चित नाट्य-रचना है, जिसके बारे में मैं पहले अन्यत्र लिख चुका हूं (देखें दिनांक 26-9-2010 एवं 11-2-2009 की प्रविष्ठियां) ।
उसका नायक अभिजात वर्ग का एक उदार एवं सरलहृदय ब्राह्मण है, जो अति दानशीलता के कारण अपनी संपन्नता खो बैठता है । नाटक में एक प्रसंग है जिसके अंतर्गत चारुदत्त को गरीबी पर अपने मित्र के साथ निराशाप्रद टिप्पणी करते हुए दिखाया गया है । अपने उद्गार को वह इस प्रकार प्रस्तुत करता हैः-
दारिद्र्यात् पुरुषस्य बान्धवजनो वाक्ये न सन्तिष्ठते ।
सुस्निग्धा विमुखीभवन्ति सुहदः स्फारीभवन्त्यापदः ।
सत्त्वं ह्रासमुपैति शीलशालिनः कान्तिः परिम्लायते ।
पापं कर्म च यत्परैरपि कृतं तत्तस्य संभाव्यते ॥36॥
(मृच्छकटिकम्, प्रथम अंक)
(दारिद्र्यात् पुरुषस्य बान्धव-जनः वाक्ये न सम्-तिष्ठते; सु-स्निग्धा विमुखी-भवन्ति सुहदः स्फारी-भवन्ति आपदः; सत्त्वं ह्रासम् उप-एति; शील-शालिनः कान्तिः परि-म्लायते; पापं कर्म च यत् परैः अपि कृतं तत् तस्य संभाव्यते ।)
अर्थ – आर्थिक हीनावस्था में पहुंचने पर उस गरीब की बात निकट संबंधी नहीं सुनता; जो हितैषी पहले सौहार्द भाव से पेश आते थे वे भी मुख मोड़ लेते हैं; विपत्तियां बढ़ जाती हैं; व्यक्ति की सामर्थ्य चुक जाती है; चरित्र एवं शालीनता की चमक फीकी पड़ जाती है; और दूसरों के हाथों घटित पापकर्म भी अब उसके द्वारा किये गये समझे जाने लगते हैं (उस पर संदेह किया जाता है) ।
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dridrta. Kurt n kartvy. Answer