लिबीया में लोकतंत्र की स्थापना कैसे हुई
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अरब क्रांति की कामयाबी देखनी है, तो इसकी बारीकियों में न जाएं। ऐसा इसलिए, क्योंकि गुजरे वर्ष में आजादी के जो बीज बोए गए, उनमें से कुछ ही अंकुरित हो सके हैं। ज्यादातर तानाशाहों, फौज व मजहबी चरमपंथियों की ज्यादतियों से मुरझा गए। खैर, जो गौर करने लायक व प्रशंसनीय तथ्य है, वह है सात जुलाई को लीबिया में हुआ मतदान। यह चुनाव अरब क्रांति को नकारने वालों को चुनौती देता है। आधी सदी में पहली बार हुए इस स्वतंत्र चुनाव में करीब दो-तिहाई नागरिकों ने वोट डाले। साफ है, मतदान फीसदी काफी ऊंची रही। चुनाव पूर्व हिंसा और मतदान संबंधी गड़बड़ियां न के बराबर हुईं। ‘नतीजे जो भी आएं, इतना तो तय है कि मतदान से जनता की लोकतांत्रिक इच्छाशक्ति सामने आ गई है।’ एक विदेशी चुनाव पर्यवेक्षक ने यह टिप्पणी की है। इससे यह पुष्टि होती है कि चुनाव काफी हद तक भयरहित संपन्न हुए। ये तथ्य उस आधारशिला की तरह हैं, जिन पर लीबिया के 60 लाख लोगों के भविष्य का निर्माण होना है। ट्यूनीशिया व मिस्र में इस लक्ष्य की प्राप्ति हो चुकी है। इन मिसालों के जरिये सीरिया, बहरीन व मध्य-पूर्व (भारत से पश्चिमी एशिया) के दूसरे हिस्सों में भी लोकतंत्र की मांग को पहचान मिल रही है। लीबिया में गद्दाफी की सत्ता को अतीत हुए नौ महीने गुजर चुके हैं। इस बीच अराजक स्थिति भी रही। शायद इसलिए वहां के लोग एकता की अहमियत को समझ पाए। और यह समझ चुनाव में दिखी। एक लीबियाई नागरिक ने फाइनेंशियल टाइम्स के रिपोर्टर को बताया, ‘जब कोई डूब रहा होता है, तो वह तिनके को भी सहारे के लिए पकड़ लेता है।’ यकीनन, लोकतंत्र ही वह व्यवस्था है, जिसमें हरेक को अपनी बात कहने का हक हासिल है। यही वह राह है, जो कबीलों में बंटे लीबिया को एकजुट कर सकती है। इसी रास्ते से यह देश अपने तेल संसाधनों को फैला सकता है और बागी गुटों से जुड़े दो लाख लोगों को हथियार डालने के लिए मना सकता है। बहरहाल, नई पार्लियामेंट अंतरिम नेताओं को बहाल करेगी, जो लीबिया का संविधान लिखेंगे। पार्लियामेंट की राजनीतिक व्यवस्था संतुलित है, क्योंकि 200 सीटों में से 120 ऐसी हैं, जिन पर आजाद नुमाइंदे होंगे और उनका काम स्थानीय हितों का खयाल रखना होगा।
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