ले चल मुझे भुलावा देकर मेरे नाविक धीरे-धीरे
जिस निर्जन में सागर-लहरी
अम्बर के कानों में गहरी
निश्छल प्रेम-कथा कहती हो, तज कोलाहल की अवनी रे।
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ले चल मुझे भुलावा देकर मेरे नाविक धीरे-धीरे
जिस निर्जन में सागर-लहरी
अम्बर के कानों में गहरी
निश्छल प्रेम-कथा कहती हो, तज कोलाहल की अवनी रे।
संदर्भ : यह पंक्तियां जयशंकर प्रसाद द्वारा लिखित ‘ले चल मुझे भुलावा देकर’ कविता से ली गई है। यह कविता उन के ‘लहर’ नामक काव्य संग्रह में संग्रहित की गई थी। इस कविता की इन पंक्तियों के माध्यम से कवि ने एक कल्पित लोक की कल्पना की है। जहाँ प्राकृतिक वातावरण उपलब्ध है और मनुष्य का हस्तक्षेप नहीं है।
व्याख्या : कवि कहते हैं कि वे एक ऐसे लोक की कल्पना कर रहे हैं। जहाँ धरती का शोर शराबा बिल्कुल ना हो और प्रकृति अपने मूल रूप में दिखाई पड़ रही हो। प्रकृति का यह रूप हमारे अनुभूतियों को विस्तार दे रहा हो और हम अपनी स्वाभाविक रूप के अधिक से अधिक नजदीक पहुंच चुके हो। मगर वह जगह होगी कहाँ? कवि यही प्रश्न पूछ रहे हैं।