ले
चल नाविक मझधार मुझे
द-दे बस अब पत्यार मुझे
इन के पर
आता, रह-रहकर प्यार मुझे
मत रोक मुझे भयभीत न कर,
में सदा कैंटीली राष्ट्र चला
मेरे पथ के पतझरों में ही
नुवन्तन मधुमासू पला
मैं अबार्थ अविराम अथक
बूंधन मुझको स्वीकार नहीं
सूनही, अरे संसाराधी
जो बस-सा मन मार चला
दोनों ही और निमंत्रण
दुसू पार मुझे उस पार मुझे
रंगीन विजय-सी लगती है
संघर्षों में हर धार मुझे।
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(क) ‘अपने मन का राजा’ होने के दो लक्षण निम्नलिखित हैं
कहीं भी रहने के लिए स्वतंत्र हूँ।
मुझे किसी प्रकार का बंधन स्वीकार नहीं है। मैं बंधनमुक्त रहना चाहता हूँ।
(ख) ये पंक्ति हैं-
पथ-पथ मेरे पतझारों में नव सुरभि भरा मधुमास पला।
(ग) इस कविता में कवि जीवनपथ पर चलते हुए भयभीत न होने की सीख देता है। वह विपरीत परिस्थितियों में मार्ग बनाने, आत्मनिर्भर बनने तथा किसी भी रुकावट से न रुकने के लिए कहता है।
(घ) कवि का स्वभाव निभीक, स्वाभिमानी तथा विपरीत दशाओं को अनुकूल बनाने वाला है।
(ङ) इसका अर्थ है कि किसी सुंदरी का आकर्षण भी पथिक के निश्चय को नहीं डिगा सका।
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